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Tuesday, September 09, 2008

सपने बीनने वाला....


माता पिता और घर के बड़ों ने नाम दिया मयंक (चन्द्रमा) .....सो कुछ धब्बे यानी कमियां तो होनी ही थी। कायस्थ परिवार जहाँ पढ़ाई पर खूब ज़ोर था, इन्होंने ज़ोर दिया लिखाई पर। खूब पढ़ा, पर पाठ्य पुस्तकों से ज्यादा साहित्य और अखबारों को ..... पढ़ने का वो चस्का लगा कि सड़क पर पड़ा पन्ना भी उठा कर पढ़ा और समोसे के नीचे दबा अखबार भी...स्नातक तक घर वालो की मर्जी से विज्ञान की पढ़ाई की और हो गये कंप्यूटर विज्ञान में स्नातक पर अब आगे और सहा नहीं गया सो घर में कह डाला कि पत्रकार बनना है ( साहित्यकार कहता तो झाड़-फूंक भी हो जाती) खैर अपेक्षा के विपरीत सब मान गए और ये पहुँच गये माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल। यहीं रह कर दो साल तक प्रसारण पत्रकारिता में एम॰ ए॰ कर डाला। अभी जून में ही ये पढ़ाई समाप्त कर के नॉएडा में जी न्यूज़ में कार्यरत हुए हैं। इंजीनियरों और डाक्टरों के कुल का एक कपूत पत्रकार बन गया है ..... खूब लिखा है सो लिखने से डर नहीं लगता है, पढ़ा भी खूब है हिन्दी और अंग्रेज़ी के लगभग सारे कवि और अधिकाँश लेखकों को पढ़ा है ...पर कभी कुछ छपा नहीं है सो छपने को लेकर एक आशंका रहती है। अब तक करीब ३०० कवितायें लिख चुके हैं ( अप्रकाशित ) और तकरीबन एक साल से ब्लोग्कारिता कर रहे हैं ..... हिंद-युग्म से शम्भू जी ने जोड़ा उनका आजीवन आभारी रहेंगे। अच्छी पत्रकारिता करना चाहते हैं .... इनका मानना है कि " उत्कृष्ट पत्रकारिता अच्छा साहित्य है और उत्कृष्ट साहित्य अच्छी पत्रकारिता"

पुरस्कृत कविता- सपने बीनने वाला....

सड़क पर पड़ा
बादलों से झांकती
धूप का एक टुकड़ा
जिसे बिछा कर
बैठ गया वो
उसी सड़क के
मोड़ पर.....

घर पर अल सुबह
माँ के पीटे जाने के
अलार्म से जागा
बाप की शराब के
जुगाड़ को
घर से खाली पेट भागा

बहन के फटे कपड़ों से
टपकती आबरू
ढाँकने को
रिसती छत पर
नयी पालीथीन
बाँधने को

बिन कपड़े बदले
बिन नहाए
पीठ पर थैला लटकाए
स्कूल जाते
तैयार
प्यारे मासूम
अपने हम उम्रों
को निहारता

बिखरे सपनों को
झोली में
समेटता
ढीली पतलून
फिर कमर से लपेटता

जेब से बीड़ी निकाल कर
कश ले
हवा में
उछाल कर
उड़ाता
अरमानों को
जलाता बचपन को
मरोड़ता
सपनों को
चल दिया
वो उठ कर
समेट कर

वह एक टुकड़ा
धूप का
वहीं बिछा है
अभी भी
देख ले जा कर कभी भी
वो सुनहरा टुकड़ा
अभी भी वहीं है
पर
उस पर बैठा बच्चा
अब नहीं है !!!!



प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६, ६॰५, ६॰५, ६॰९, ७॰५
औसत अंक- ६॰६८
स्थान- प्रथम


द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६॰२, ६॰५, ६॰६८ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰४६
स्थान- छठवाँ


पुरस्कार- मसि-कागद की ओर से कुछ पुस्तकें। संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी अपना काव्य-संग्रह 'समर्पण' भेंट करेंगे।

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8 कविताप्रेमियों का कहना है :

Smart Indian का कहना है कि -

मयंक,
यथार्थ का सजीव काव्यात्मक चित्रण करने के लिए बधाई. बात भी सही है और शब्द भी सुंदर है.
Keep it up!

Harihar का कहना है कि -

माँ के पीटे जाने के
अलार्म से जागा
बाप की शराब के
जुगाड़ को
घर से खाली पेट भागा

अच्छी कविता है मयंक जी

Unknown का कहना है कि -

मयंक जी, आपके परिचय में एक जगह पर लिखा है कि इंजीनियरों और डाक्टरों के कुल का एक कपूत पत्रकार बन गया है. यदि आप कपूत है तो मेरी ईश्वर से प्रार्थना है की हर घर में आप जैसा कपूत दे.

संगीता पुरी का कहना है कि -

वह एक टुकड़ा
धूप का
वहीं बिछा है
अभी भी
देख ले जा कर कभी भी
वो सुनहरा टुकड़ा
अभी भी वहीं है
पर
उस पर बैठा बच्चा
अब नहीं है !!!!
बहुत यथार्थ बात कही है।

Anonymous का कहना है कि -

सही बात सीधी बात सुंदर शब्दों में
बधाई हो
सादर
रचना

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

बहुत बढि़या मयंक जी...
बधाई...

Pooja Anil का कहना है कि -

यथार्थ को प्रस्तुत करती उत्तम कविता .

शुभकामनाएं

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

यह बहुत प्रिय विषय है कवियों का। लगभग इसी तरह की कविता मैंने इसी मंच पर विनय के॰ जोशी की, मोहिंदर कुमार, अनुराधा श्रीवास्तव की पढ़ चुका हूँ। लेखनी में धार और ताज़ेपन का होना आवश्यक है। और यदि आप छुए विषय ही छूना चाहते हैं तो एक अलग और नायाब दृष्टि के साथ आयें और साहित्य-जगत का दृष्टि-पटल विस्तारित करें।

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