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Wednesday, March 14, 2007

क़त्ल मुझको करें


अच्छा रूठो, चलो रूठो, हम मनाने को बेताब हैं;
बस इसी आड़ में आज फिर जान-ए-मन,खिले कुछ हसीं ख़्वाब हैं।

आज फिर देखेंगे तमतमाया हुआ, तेरा चेहरा सुलगता हुआ;
आज फिर देखेंगे कि बरफ़ में दबी सी, हुई कैसी इक आग है।

मैं छुऊँगा घटाओं को फिर हाथों से और बिखराऊँगा मैं उन्हें;
चल सके तो चले काला जादू चले,मेरा उसको भी आदाब है।

क़ातिलाना बहुत हैं निगाहें तेरी,आज़माकरके देखूँगा आज;
कर सकें तो करें,क़त्ल मुझको करें,वो भी होने को बेताब हैं।

सोचा है आज खेलूँगा मैं हुस्न से खूब जमकरके ऐ जान-ए-मन;
रूठ जाने की परवाह तनिक भी नहीं,हम मनाने को बेताब हैं।

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9 कविताप्रेमियों का कहना है :

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

पंकज जी,

हिन्द-युग्म पर आप सशरीर आ गये हैं। आपका स्वागत एवम् अभिनंदन

रंजू भाटिया का कहना है कि -

क़ातिलाना बहुत हैं निगाहें तेरी,आज़माकरके देखूँगा आज;
कर सकें तो करें,क़त्ल मुझको करें,वो भी होने को बेताब हैं।


अभी आते ही इस को पढ़ा तो कई विचार ज़हन में आ गये

उनकी बातो की काशिश में दिल आज कुछ ऐसा खो गया
किया हमने उनसे ना इज़हार कभी जिस बात का वो आज कैसे हो गया
रुठ कर उनसे हमे तो उन्हे बहुत सताना था,तड़पा ना
पर उनके प्यार का जादू में यह कैसे मान जाने का असर हो गया !!

ख़ूबसूरत लिखा है ..बधाई

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

सुन्दर लिखा है आपनें:
" आज फिर देखेंगे कि बरफ़ में दबी सी, हुई कैसी इक आग है", "चल सके तो चले काला जादू चले" जैसी पंक्तियाँ अच्छी बन पडी हैं..

*** राजीव रंजन प्रसाद

Anonymous का कहना है कि -

क़ातिलाना बहुत हैं निगाहें तेरी,आज़माकरके देखूँगा आज;
कर सकें तो करें,क़त्ल मुझको करें,वो भी होने को बेताब हैं।
kya baat kahi hai...aachi panktiyaan hain

SahityaShilpi का कहना है कि -

बहुत खूब पंकज जी। आपका ये अंदाज भी अच्छा लगा। कुछ पँक्तियाँ वास्तव में अच्छी बन पड़ी हैं।

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

जाने क्यों पढ कर ऐसा लगा कि प्रेम कुछ और पावन सा दिखता तो मज़ा आ जाता.
एक पंक्ति कुछ चुभी

सोचा है आज खेलूँगा मैं हुस्न से खूब जमकरके ऐ जान-ए-मन;


प्रयास अच्छा है..और बेहतरीन गज़ल का इंतज़ार रहेगा.

Anonymous का कहना है कि -

पंकज जी,

sher sabhi acchey likhe hain...

teesre sher ke pahley misre mein ..

"main" shabd.. do baar jis parahaa aapne prayog kiyaa hai ...kuch khal saa raha hai .. aap ko aisaa nahn lagtaa ?

Upasthit का कहना है कि -

वाह पंकज जी वाह...ऐसी कविता तो हिन्दी युग्म के इतिहास मे किसी ने नहीं पढ्वाई..इसे पढकर आपसे पूरी आशा बंधी है कि आप, आगे भी, ऐसे ही, ऐसी ही, "कत्ल मुझको करें" टाइप कवितायें(गीत,गजल, छंद या काव्य की जिस भी विधा पर "कत्ल मुझको करें" की कातिल नजर-ए-इनायत हुयी हो, होनी हो) पढने को मिलती रहेंगी ।
आपका ये हुस्न से जम के ही नहीं, खूब जम के खेलने का जो अन्दाज था, रुठ जाने की पर्वाह बगैर, वाह वाह.....घटाओं को छूऊंगा ही नहीं..बिखराऊंगा भी मैं उन्हे..वाह साब।

Mohinder56 का कहना है कि -

पंकज जी,
अगर माशूका की निगाहें कातिलाना हों तो रिफलेक्टर या ढाल का प्रयोग ठीक रहेगा बजाये कत्ल का शिकार होने के.. क्योंकि आप शिकार भी बनेंगे और रुसवायी भी आप ही की होगी.. हा हा

सभी मुझ से कहते हैं... निगाहें नीची रख अपनी.
कोई उनसे नही कहता... न निकलो यूं अंया हो कर

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