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Thursday, June 05, 2008

पहली कविता का पहला शतक







काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन




विषय - पहली कविता (भाग-5)

विषय-चयन - अवनीश गौतम

अंक - पंद्रह

माह - जून 2008





मई महीने के पहले सप्ताह से हिन्द-युग्म ने प्रत्येक वृहस्पतिवार को कविताकारों की 'पहली कविता' को प्रकाशित करना शुरू किया। और अब तो धूम सी मची हुई है। 'पहली कविता' का यह शतकीय अंक है। हिन्द-युग्म को खुशी है कि धीरे-धीरे यह इंटरनेट पर विचरते सभी हिंदी कवियों की पहली कविताओं को एक-एक करके प्रकाशित कर रहा है। हमें उम्मीद है कि 'पहली कविता' का काव्य-पल्लवन रूपी बल्लेबाज अपना दोहरा शतक भी लगायेगा। शुरू के अंकों में कुछ कवियों ने अपनी 'पहली कविता' के लिखने की भूमिका (पृष्ठभूमि) नहीं भेजी, लेकिन अब रचनाकारों को कविता के साथ उसकी भूमिका का सौंदर्य समझ में आने लगा है, इसलिए इस बार कविताओं से अधिक भूमिकाएँ रसपूर्ण है। उम्मीद है कि आपको 'पहली कविता' का यह पाँचवा भाग आपको अवश्य पसंद आयेगा। २०-२० कविताओं के पिछले चार अंक आप निम्न सूत्रों से पढ़ें-






इस बार का थीम हैडर हिन्द-युग्म के नये डिजाइनर राहुल पाठक ने बनाया है।

जिन्होंने अभी तक अपनी 'पहली कविता' नहीं भेजी है, अब तो उनमें जोश आ जाना चाहिए। आप अपनी पहली कविता रूपी गेंद फेंकिए, हम काव्य-पल्लवन में रन जोड़ते जायेंगे। अधिक जानकारी के लिए यहाँ देखें।

आपको यह प्रयास कैसा लग रहा है?-टिप्पणी द्वारा अवश्य बतावें।

*** प्रतिभागी ***
| पूर्णिमा वर्मन | कमला भंडारी | आशीष जैन | प्राजक्ता | दिनेश पारते | सुनीता यादव |भूपेंद्र राघव | हेमज्योत्सना पराशर | राजीव रंजन प्रसाद | गिरीश बिल्लोरे "मुकुल" | तनु शर्मा | श्याम सखा 'श्याम' |
| बेला मित्तल | तरुश्री शर्मा | मेनका कुमारी | संजीव कुमार बब्बर | अरविंद चौहान | सुनील डोगरा ’जालिम’ | गीता मोटवानी | पूजा उपाध्याय |


~~~अपने विचार, अपनी टिप्पणी दीजिए~~~




पहली कविता कब लिखी वह तो ठीक से याद नहीं है पर पहली जो कविता छपी वह याद है। उस समय में छठी कक्षा में पढ़ती थी और वह कविता पाठशाला की पत्रिका के लिए लिखी थी। पाठशाला में किसी ने विश्वास नहीं किया था कि कविता मैंने खुद लिखी है और मैंने भी नहीं बताया था कि मैंने खुद लिखी है। बहुत सी रचनाएँ हिन्दी अध्यापिकाएँ खुद ही लिखती थीं। कुछ रचनाएँ छात्राओं के माता पिता जो भी रचनात्मक रुचि रखते थे लिख भेजते थे और छात्राओं के नाम से छप जाती थीं। इस कविता के छपने के बाद पहली बार मेरे माता पिता को पता चला था कि मैं कविता लिख सकती हूँ।

बात एक पेरेंट टीचर मीटिंग की है जब मेरी अध्यापिका ने मेरी माँ को बधाई दी, "आपकी कविता बहुत अच्छी थी जो पूर्णिमा के नाम से हमने छापी।"
मेरी माँ दंग! बोलीं, "मैं तो कविता लिखती नहीं। हाँ सालाना पत्रिका में देखी ज़रूर थी पूर्णिमा के नाम से पर मुझे लगा कि आप लोगों ने उसके नाम से लिख दी होगी।"
"अच्छा तो क्या कविता तुमने खुद लिखी थी?" अध्यापिका ने मुझसे पूछा।
मैंने हाँ में सिर हिलाया पर इस बात से मुझे कोई खुशी या गर्व नहीं महसूस हुआ था। शर्म से मैं माँ की साड़ी के पल्ले (पल्लू) में छुप गई थी। बाद में मेरी हिन्दी की अध्यापिका ने कविताओं को कॉपी में लिखकर सहेजने की सलाह दी थी। सो उसके बाद की कविताएँ मेरे पास हैं। कविता थी---

देश हमारा आँख का तारा

देश हमारा आंख का तारा,
हम सब इस पर हों कुर्बान।
जय जय भारत देश महान।

इसी देश पर अमरतिरंगा
लहर लहर लहरा कर के
इसी देश में गंगाजमुना
कल कल नीर बहा कर के
हमें ज्योतिमय राह दिखाएं
करें हमारा ही कल्यान।
जय जय भारत देश महान।

जिसको सबने सदा दुलारा
इसी देश पर ताज है प्यारा
सारे जग का एक सितारा
काश्मीर हैसदा हमारा
सदा बढाएंगे हम भारत
तेरे यश का गौरवगान।
जय जय भारत देश महान।

-पूर्णिमा वर्मन




जब कश्मीर युद्ध चल रहा था तब एक दिन मैं शाम के समय टी.वी पर एक
कार्यक्रम देख रही थी । सब लोग कश्मीर युद्ध पर कुछ न कुछ सुना रहे थे ।
तभी दिमाग मे ख्याल आया की क्यों न मैं भी कुछ लिखूं क्युकी लिखने का शौक
तो मुझे था ही पर पहले या तो शायरियाँ लिखती थी या किसी किताब मैं से कुछ
भी अच्छा लगता था तो उत्तार लेती थी ।


हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की लड़ाई थी
दोनों ही तरफ़ के सैनिकों ने
अपनी - अपनी जान लड़ाई थी
अचनाक दुश्मन लाइन आफ कंट्रोल पर पहुँचा तो
अपने सैनिक ने भी उसे धर दबोचा
बोला आज तुझे मारुंगा और
तेरे खून से अपने देश की प्यास बुझाऊंगा ,
दुश्मन डर गया और बोला
थोड़ा सा अपने मन को मोड़ लो
मेरे प्यारे भाई मुझे छोड़ दो
जाने कौन सी हवा चल गई
अपने प्यारे सैनिक को दया आ गई
सैनिक बोला ठीक है छोड़ दूंगा
तेरे लिए अपना मन भी मोड़ लूँगा
पर मेरी भी एक शर्त है
मान ले यदि तू एक मर्द है
दुश्मन मन ही मन मुस्कान
सोचा ये इसकी भूल है
और बाहर बोला मुझे सब मंजूर है
इत्तिफाक से अपना सैनिक एक कवि था
उसका कवि मन जागा और
इधर - उधर भागा
उसने दुश्मन को कविता सुनाई
दुश्मन की सारी इन्द्रियाँ झ्न्नाई
दुश्मन को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था
फिर भी सैनिक के गुण गाये जा रहा था
उम्मीद थी की कभी तो कविता ख़त्म होगी
और उसके दिल की इच्छा भी पूरी होगी
इतने मैं कवि बोला
अरे ! मेरा साहस तो बढ़ाओ
जरा जोर - जोर से तालियाँ तो बजाओ
कवि अपनी कविता सुनाता गया
दुश्मन से तालियाँ बजवाता गया
उसने दुश्मन से ताली बजवाई तबतक
ताली बजाते - बजाते दुश्मन की
जान नही चली गई जबतक
इसतरह सैनिक ने दुश्मन को मिटाया
अपने सैनिक होने का फ़र्ज़ और
कवि होने का गर्व
दोनों को साथ - साथ निभाया ।

--कमला भंडारी




ये कविता या उससे मिलती-जुलती चीज मैंने पिछले दिसंबर में रात को सोने से पहले लिखी थी। शब्द कहां से आए, मुझे नहीं पता। शायद उस रात किसी ने उधार दिए थे। उन्हीं के सहारे छोटी सी और पहले-पहल कोशिश की थी।


चल चला चल
कोई नहीं है तेरा,
तू हंसता चल।
राह के साथी के,
दर्द में फंसता चल।।
मंजिलें मिलेंगी तुझे,
ना घबरा।
तूफानों में फंस,
मझधारों से निकलता चल।।
खूब हंस,
नाच ले, झूम ले।
दिल तोड़ दे कोई,
तो सिसकता चल।।
दूर है किनारा,
सेहरा में फंस गया।
लेकर दिल के अरमां,
मचलता चल।।
मिले खुशियां,
तरक्की, शोहरत।
राह भर फिर तू चहकता चल।
इंसां है तू भी,
दर्द होता है।
जाम बनके,
तू भी होठों से छलकता चल।।

--आशीष जैन

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संगीत

प्राणो का आधार यही है,
जीवन की झंकार यही है,
हर कण में संगीत बसा है,
परमेश्वर का प्यार यही है

सात सुरों की मधुरिमा का,
अप्रतिम विस्तार यही है,
भावनाओं की अभिव्यक्ति का,
स्नेहमय संसार यही है,

हृदय का स्पंदन हृदयंगम हैं,
श्वांस में सुरों का संगम है,
हर तार की हर तरंग में,
जीवंतता की नयी उमंग है

तमस को ज्योति स्वरूप दे,
ऐसा 'दीपक' राग यही है,
प्राणों की तृष्णा को तृप्ति दे,
राग 'मेघ मल्हार' यही है

धर्म जाति में भेद ना जाने,
संकीर्णता का उपचार यही है,
प्रेम ही बाँटे, प्रेम सिखाए,
भावनाओं का अंबार यही है

मनुजता का आभूषण है
मनुज का उद्धार यही है
असहिष्णुता की आँधी में,
अचल अडिग दीवार यही है

सुख की आँधी, दुख की वर्षा,
हर मौसम का प्यार यही है
जीवन के हर मोड़ की व्याख्या,
करता हर 'आकर' यही है

जीवन सीमाओं से मुक्त है
क्षितिज के उस पार यही है
आत्म-परमात्म के संबंधों का,
विस्तृत आधार यही है

ज़ीवन की लयबद्धता का,
सृजन का सब सार यही है
संगीत से जीवित हर कण है
संगीत बिना संसार नही है !

--प्राजक्ता




बात सैनिक स्कूल रीवा (म. प्र.) में आठवीं कक्षा की है। पाँचवी कक्षा तक गाँव में पढा़ई करके के कारण मेरी स्पीकिंग इंग्लिश अच्छी नहीं थी। अंग्रेजी के अध्यापक मुझे उलाहना देते थे कि मेरी बोलचाल की अंग्रेजी अच्छी नहीं है फिर भी मैं अच्छे मार्क्स कैसे ले आता हूँ ! यह कविता लिखकर मैंने अपने आपको दृढ़ प्रतिज्ञ किया था और फिर अगले वर्ष डिबेट कॉम्प्टीशन में प्रथम स्थान पाप्त किया था। मुझे पता है कि यह कविता अपरिपक्व है मगर इसी ने मुझे परिपक्व बनाया था। पहले मुझे इसे भेजने में थोडी़ झिझक हो रही थी फिर बाद में सभी लोगों की रचनायें देखने के बाद थोडा़ बल मिला। मुझे मेरी पहली कविता याद दिलाने के लिये ’हिन्द-युग्म’ का आभार।


कर्कश वचनों पर ध्यान न दे
मीठी बातों को सुनता जा
ग़म के काटों की चुभन देख
और फूल खुशी के चुनता जा

थककर जो तू बैठ गया
कुछ भी होगा हासिल कैसे
बिन किये जतन अब तू ही बता
मिल पायेगी मंज़िल कैसे
जो पाना है बेदाग रुई, तो मलिन कपास को धुनता जा !
ग़म के काटों की चुभन देख, और फूल खुशी के चुनता जा !

रोडे़ तो आयेंगे ही
हर राह पर, हर बाट पर
चट्टानें हैं सुख-दुख के
जीवन सरिता के घाट पर
दम साध, कमर कस, आगे बढ़, किस्मत के जाले बुनता जा !
ग़म के काटों की चुभन देख और फूल खुशी के चुनता जा !

--दिनेश पारते




मेरी पहली कविता का उदगम धरातल एक छोटी -सी बच्ची से जुडी भावना है जो मेरे अंतरात्मा को छेड़ने में समर्थ रही जिसे मैंने चर्म चक्षु से देखा , भाषा का सहारा दिया ..कविता का शीर्षक है...

कजरी का दुःख

मालकिन छोटी -सी पतंग दे गई थी,
पल भर की खुशी उधार दे गयी थी,
पतंग लिए कजरी बावरी हुई थी,
मगन होकर आसमान निहारी थी .
छत पर चढी थी , दीवानी बनी थी
पल भर की खुशी को जिए जा रही थी ,
पल भर की खुशी को जिए जा रही थी ,
चैत की साँझ मेहरबान न थी
घास से भरी खुली जमीन भी न थी
चक्कर काटती पतंग हवा में
एंटीना के तार में लटक गयी थी ...
न रो सकी थी , न निकाल सकी थी,
चुप-चाप पतंग को निहारी जा रही थी ,
टूटे धागे को लपेटती जा रही थी ,
एंटिना के सामने रोई जा रही थी ...
और एंटीना ?
पल भर की खुशी का चित्र न खींच पाई थी ,
न कजरी की आवाज़ को पहुँचा पाई थी ,
बालमन के कमजोर द्वार को खोल न पाई थी ,
उसके दुःख से जुड़ी कोई कविता सूना न पाई थी ,
उसके दुःख से जुड़ी कोई कविता सूना न पाई थी .

--सुनीता यादव




दोस्तों मैं 14-15 साल का रहा होऊँगा 10वीं कक्षा में था 1989 की बात है भूत सवार हुआ था
फिल्मी गाने लिखने का, लिखे भी बहुत गाने, अभी भी याद आ जाते है उनके कुछ मुखड़े कभी कभी जैसे :-
'किधर चली ओ जानेमन ये मस्ताना रूप लिये
बाइस कैरट का हुस्न लिये गालों पर खिलती धूप लिये
रुक जा.............. मै भी आता हू....'
पर वो कॉपी कहीं खो गयी या फिर कोई रद्दी वाला अथवा चाट वाला ले गया काफी तलाश की
मगर मिली नहीं उसी में शायद दूसरे या तीसरे नम्बर पर यह कविता थी जो मुझे याद है तभी
से क्यूँकि इसको मेरे दोस्त मुझसे बार बार सुना करते थे तो याद रह गयी बाकी और भी आंशिक
याद हैं मगर ये पूरी याद है..अब इसको मेरा सौभाग्य कहें या इस कविता का..
इस कविता को लिखने की प्रेरणा मुझे फिल्म 'एक फूल दो माली'के एक सीन को देखकर मिली

कविता से पहले सभी श्रीमतिओं से अग्रिम क्षमा याचना.....


ओ रब्बा मेरी आफत आई

हे भगवान खैर कर....
मुझे बचा ले, वरना मैं मर जाऊँगा
अभी तो सत्तर साल का ही हूँ
इतनी जल्दी जिन्दगी से किनारा कर जाऊँगा..

ओ रब्बा..... मेरी आफत आई
मुझे बचा ले मेरी आयी तबाही....
मेरी घरवाली
काली महा-काली
ऐसी है मोटी
अरे तन्दूरी रोटी
कभी सैंडल मँगवाती
कहे कभी शूज, हवाई.....
ओ रब्बा..... मेरी आफत आई

रोज बाजार जाये
सौ का नोट उड़ाये
पैर पैदल ना धरती
हमेशा चरे इमरती
कहीं पर कटिंग कराती
कहीं लगवाती डाई........
ओ रब्बा..... मेरी आफत आई

जब भी घर में आये
एक तूफान लाये
कहे छोड़ो हे कीर्तन
उठो अब मांझो बर्तन
मैं हारी थकी आयी हूँ
करो ये साफ कढ़ाई......
ओ रब्बा..... मेरी आफत आई

करके सैर सपाटे
सोये लेकर खर्राटे
मैं ठंड में मारा फिरता
अटक चप्पल से गिरता
वो सुकूं से सोती रहतीं
ओढ़कर नर्म रजाई
ओ रब्बा..... मेरी आफत आई

बैंक बेलेंस उजड गया
बलि मैडम की चढ़ गया
कहाँ से लाऊँ पैसा
कि खर्चा हाथी जैसा
और एक हथनी घर में
पली है मेरे भाई.......
ओ रब्बा..... मेरी आफत आई

शर्म के मारे भाई
बात नही जाये बताई
कि एक दिन बैंत पकड़कर
मैं बोला जरा अकड़कर
लो पासा उल्टा पड़ गया
मेरी जब हुई पिटाई......
ओ रब्बा..... मेरी आफत आई
मुझे बचा ले मेरी आयी तबाही....

--भूपेंद्र राघव




यह कविता मेरी पहली कविता है , जो मैंने कक्षा 11 (1999) में लिखी थी। इस कविता को मैंने एक व्यक्ति विशेष पर , उनके व्यवहार पर लिखी थी| जब मैंने इसे अपनी इंग्लिश टीचर को सुनाया था तब उन्होने इसमें एक परिवर्तन करवाया था ।
मैंने इसमें महान शब्द के स्थान पर भगवान शब्द लिखा जिसे मेरी फ़ेवरेट इंग्लिश टीचर ने यह कह कर हटवाया के भगवान की ये परिभाषा नहीं हैं। और तब से मैंने शब्दो का सही प्रयोग करना सीखा ।

धन है तो मन है ,
ज्ञान है तो सम्मान है ,
चरित्र है तो इन्सान है ,
नहीं है असत्य तो ड़र भी नहीं है ।
जिसमें है ये सभी , वही तो महान है, वही तो महान है ।
अहिंसा बिन मानव नहीं ,
प्यार बिन मानव नहीं ,
आत्मा बिन मानव नहीं ,
वह तो पशु समान है ,
जिसमें है ये सभी , वही तो महान है, वही तो महान है ।

--हेमज्योत्सना पराशर




मेरी पहली कविता एक रोचक घटना की परिणति थी और चूंकि तब की विद्यालय पत्रिका में प्रकाशित हुई थी अत: मेरे संग्रह में बची भी रही। बस्तर प्रांत के छोटे से नगर बचेली में रेडियो पर प्रसारित होना तब बडी बात मानी जाती थी। हमारे पडोस में ही विज्ञान के अध्यापक श्री शिव कुमार 'शिवेश' डहरिया रहते थे, जिनकी कविता रेडियो में सुन कर मेरे मन में कवि हो जाने की उत्कंठा हुई। तीसरी कक्षा का छात्र क्या कविता लिखता और मास्टर साहब भी क्या समझाते कि कविता कैसे लिखी जाती है, अत: मेरी स्वाभाविक जिज्ञासा को उन्होने हमेशा टाल ही दिया। किंतु कवि बनने की ललक तो थी ही। मैं एक दिन चुपके से उनकी डायरी चुरा लाया। घंटो पन्ने उलटे-पलटे, किंतु मेरी समझ में कुछ आता तब था। अंतत: मैने यह बात अपनी माता जी को बता दी। बिना यह जाने कि मेरा उद्देश्य कविता लिखना सीखना है, मुझे डायरी की चोरी पर झंन्नाटेदार थप्पड पडा और डायरी माफी माँग कर लौटाने की नसीहत दी गयी। मैं डरते डरते शिवेश सर के पास पहुँचा और माफी माँग कर अपनी गलती कारण सहित बता दी। वे मुस्कुराये और बोले कविता लिखना बेहद आसान है। बस तुक मिलाते चलो, जैसे राम के साथ श्याम, सीता के साथ गीता या पपीता।
यह गुरुमंत्र ले कर मैं लौटा और आहिस्ता आहिस्ता कविता मेरी संगिनी हो गयी। मैं शिवेश सर का एकलव्य रहा हूँ। सौभाग्य की बात यह कि हिन्द-युग्म पर मेरी कविता पढ कर लगभग 28 वर्षों बाद भोपाल से उन्होंने मुझे फोन किया...मैं अपनी पहली और बेहद अनमोल रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ

पंडित पेटू राम जी
गये कथा कहने को
कहने कथा जब बैठे
आया पानी मुँह में उनको
रसगुल्ले कचौडी पूडी
पंजीरी नरियल
सेव संतरे, लीची आम
और रखे सीता फल
सीता राम की जगह बोले
कचौडी पूडियाय नम:
एक बच्चा जोर से बोला
पंडित पेटू रामाय नम:

--राजीव रंजन प्रसाद




पहली कविता भेज रहा हूँ छठी कक्षा में छुप के लिखी थी . डर था कि कोई देखेगा शायद डांट पड़ेगी...!माँ देखेगी तो ठीक बाबूजी देखेंगे तो शायद पिटाई होने की पूरी संभावना पढाई के फरमान के बीच कविता ..?यानी हुकुम-उदूली .उन दिनों परिवारों में माँ और बाप में वही अंतर होता था जो कि "धूप-छाँह"के बीच,हुआ करता था.....ये केवल भय था...... माँ के हाथ लगी कविता की काॅपी में लिखी कविता ने मुझे जो दर्जा दिलाया उसका सुखद एहसास ज़िंदगी भर साथ है मेरे

बाक़ी रह जाती है...बाक़ी रह जाती है

दिन में सरोवर के तट पर
सांझ ढले पीपल या वट पर
गुनगुनाहट पंछी की,मुस्कराहट पंथी की
बाक़ी रह जाती है...बाक़ी रह जाती है
बाक़ी रह जाती है...बाक़ी रह जाती है
हर दिन नया दिन है
हर रात नई रात
मेरे मीत इनमें
दिन की धूमिल-स्मृति
रात की अविरल गति
बाक़ी रह जाती है...बाक़ी रह जाती है
बाक़ी रह जाती है...बाक़ी रह जाती है !
सपने सतरंगी समर्पण बहुरंगी
जीवन के हरेक क्षण दरपन के लघुतम कण
टूट-टूट जाएंगे,
हर कण में क्षण स्मृति
हर क्षण में कण स्मृति
बाक़ी रह जाती है...बाक़ी रह जाती है
बाक़ी रह जाती है...बाक़ी रह जाती है !
अर्पण में दर्पण को
दर्पण में अर्पण को
भूल कहाँ पाओगे
श्रृद्धा के अक्षत से मन मोहक
बातें उनकी अक्सर वीराने में बाक़ी रह जाएगी !

--गिरीश बिल्लोरे "मुकुल"




ये कविता मैंने पिछले साल अक्तूबर के महीने में लिखी थी. मैं उस समय कुछ परेशान थी और इसी दौरान ये कविता लिख डाली. इसके बाद मुझे बड़ा सुकून मिला.

रिश्ते....

ये रिश्तों की दुनिया
कितनी अजीब सी होती है,
जितना इन्हें करीब से जानो,
उतनी ही मुश्किल "पहेली" होती है।

ये रिश्ते ही तो हैं, जो हमारे जन्म के साथ हमसे जुड़ जाते हैं,
कुछ ज़िन्दगी भर साथ निभाते हैं,
तो कुछ वक्त से पहले ही छूट जाते हैं।
रिश्ते किसी के लिये सिर्फ एक शब्द हैं,
तो किसी के लिये ज़िन्दगी,
किसी के लिये बंधन हैं,
तो किसी के लिये बंदगी
मैं भी इन रिश्तों की दुनिया में जीती हूँ,
बहुत से रिश्ते मन से तो कुछ बेमन से भी जीती हूँ।
इन रिश्तों की दुनया से मैंने बहुत कुछ सीखा,
अपनों का समझना तो गैरों को अपनाना भी सीखा,
कुछ रिश्ते जो चाहे उन्हें पा न पाई,
और कुछ अनचाहे रिश्तों को चाहकर भी निभा न पाई।
ईश्वर की दुनिया में हम एक बार जीते हैं,
और एक बार मरते हैं।
पर रिश्तों की दुनिया में कभी हर पल जीते हैं,
तो कभी हर पल मरते हैं।
अब धीरे-धीरे मैं भी इन रिश्तों की दुनिया में रम रहीं हूँ,
और अपना सब कुछ इन रिश्तों को देने की कोशिश कर रही हूँ।

और कर रही कोशिश इस दुनिया में खुश रहनर की,
कोशीश अपने हर रिश्ते में बसने की,
कोशिश अपने हर रिश्ते को जीने की,
और कोशिश कुछ खोकर भी मुस्कुराने की।

--तनु शर्मा




मैंने कविता लिखना तो ११-१२ बरस की उम्र में आरम्भ किया था। पहली कविता का पाठ भी, मेरे पंजाबी के अध्यपक स्वर्गीय श्री दयाल चंद जी मिगलानी के साथ ऑल-इंडिया रेडियो पर हुआ दिल्ली में। तब रोहतक में रेडियो स्टेशन न था। मगर वह कविता उपलब्ध नहीं है। मेरी कॉपी में अप्रैल १९६८ की तिथि को हेडिंग systemic writing ke अन्तर्गत जो पहली रचना है, वह ही पहली रचना माननी पड़ेगी अब तो। यह रचना १९६५-१९६६ में लिखी गई थी जब मैं १७-१८ बरस का रहा हूंगा। पड़ोस में एक बहुत सुन्दर कन्या आ बसी थी, जो उस वक्त मेरे लिये आकाश-कुसुम थी। उस समय १३-१४ बरस के बाद लड़के-लड़की का बतियाना Eloping सरीखा गंभीर अपराध माना जाता था। उसी कन्या को लेकर लगभग ३० साल बाद एक कहानी रसभरी लिखी।

आ बसी जब तुम नयन में

चाँद नजर आये भी तो कैसे
आ बसीं जब तुम नयन में
चाँद भी उस रात का
जिसमें टंके सलमे सितारे
वो समां है बंध रहा,फीके
जिसके आगे सब नजारे
फूल भी मुस्कायें, तो कैसे
आ गई जब तुम चमन में
फूल भी उस बाग का
हर फूल जिसका गुलमोहर
जिसकी इक झलक को
तरसे दुनिया शामो-सहर
गीत भी तड़पायें तो कैसे
आ बसीं जब तुम चमन में
गीत भी उस कलम का
आँसू से जो लिखती कहानी
आँख पढ़ पाये न उसको
बोले वो दिल की जुबानी
दिल को अब बहकायें कैसे
आ बसीं जब तुम मनन में

श्याम सखा 'श्याम'




मैंने अपनी पहली कविता स्पर्श अपने पति अशोक को समर्पित की है, मेरी सामाजिक क्षेत्र में काम करने की रूचि रही है और मेरे पति हमेशा मुझे प्रोत्साहित करते हैं एक शाम इन्ही यादों मैं खोकर यह कविता लिख डाली, यदि आपकी ओर से प्रोत्साहन मिला तो एक एक करके प्रकृति, परिवार और सामाजिक रचनाएँ भेजूंगी

तेरे प्यार के स्पर्श ने
मुझे क्या से क्या बना दिया
मेरी बावनाओं को शब्दों में
सजाकर उसे नया रूप दिया
मेरी सांसों को छन्दों में पिरोकर
उसे नया गीत दिया।।

मेरे अनुभवों को देकर तुमने काया,
मेरे नीरस जीवन को संजोया
तुम्हारे स्पर्श शब्द और तुम्हारे तुम से,
मैं जीवन का उद्देश्य नया पाया।।

हाथ पकड़कर तुमने दिखाया,
सुंदरता इस जीवन की मरुभूमि में
कुछ लेने देने का,
कुछ पाने खोने का यह सुख दुख
तुमने हंसना रोना सिखाया,
इस जग के अपार कोलाहल में।।

मुझे प्यार है उस तुम्हारे तुम से...
जो तुम नहीं
वरन् जो बना देता है मुझे क्या से क्या
जब रहता है साथ तुम्हारे

मुझे प्यार है उस तुम से,
जो मेरे जीवन में लाता बहार
मुझे प्यार है मुझ से,
जो तुम में समा जाता है अपार।।

बेला मितल




ये मेरी पहली कविता है, ये तो नहीं कह सकती...लेकिन संग्रहित कविताओं में से पहली जरूर है। क्योंकि इससे पहले जो कविता फॉर्म में लिखा होगा... वो महज टाइम पास या लोगों के बीच कुछ वैचारिकता झाड़ने के लिहाज से शायद लिखा हो। मेरी डायरी में संकलित कविताओं में यह मेरी पहली कविता के रूप में दर्ज है... सो इसे ही अपनी पहली कविता मैं मानती हूं। 1 अगस्त 1999 को लिखी यह कविता... शायद उस वक्त रही मेरी पीड़ा के बाद, लिए गए निर्णय को दिखाती है.... पहली कविता भेजने की वजह से वक्त का वो दौर और ये संकल्प मुझे एक बार फिर याद आ गया।

उड़ान

मेरे मन की उड़ान,
उस आवाज सी है,
जो दीवारों से टकरा कर,
लौट आती है,
वहीं वापस....
जहां से सफर शुरू हुआ था।
मैं कब चाहती हूं,
बहुत ऊंची उड़ान?
बस चाहती हूं,
धरातल के इर्द गिर्द की
छोटी छोटी उड़ान।
वो उड़ान जो,
बांधे रखे अपनी जड़ों से,
हिलाने की कोशिश ना करे।
तभी होगा मुझे सफर का गुमान,
कल मैं यहां थी,
और आज यहां हूं...
मैं कहां से चली थी,
और अब कहां हूं।
आखिर मुझे तय करना है,
एक ऊंचा सफर...
अपने दायरों के साथ।

तरुश्री शर्मा



मेरे लिए ये बताना मुश्किल है की मैं कब से कवितायें लिख रहीं हूँ| और इसी कारन मैं अपनी पहली कविता सहेज ना पायी, फिर भी यहाँ कनाडा आकर मैंने अपना ब्लॉग बनाया "सुरभि", और इसी ब्लॉग मे "चाँद के साथ-साथ...." मेरी पहली कविता है, जो मैंने एक शाम को चाँद और बादल की लुका-छुपी को देखते हुए लिखा था|

चाँद के साथ साथ...............
आसमान पर खिल उठा है , वो पुरा चाँद आज,
बादल की कुछ परतें कर रहीं हैं
संग उसके अटखेलियाँ ....................

बहती हुई हवा की मस्त धीमी चाल ,
छेड़ रही है चाँदनी को,
वो मुस्कुराता हुआ धीमे धीमे पुरा चाँद............

आज उसे भी क्या , किसी का ख्याल आया है,
जैसे ऊठ रहे है मन मे कई विचार ,
कुछ शरमाता , कुछ सकुचाता वो चाँद..............

दूर घटाओं को देख कर कभी डर रहा है उसका मन ,
अपनी चाँदनी को छुपा रहा है वो ख़ुद मे,
समेट रहा है अपना हर प्रकाश ..........................

कुछ छुपा छुपा सा , लगता है जैसे,
कर रहा हो कोई खेल , या
डर गया है , वो अपनी ही भावनाओ से ...................

उसके मन मे चल रहा है, जैसे कोई द्वंद ,
कोई लड़ाई ख़ुद से ही ,
और अब झांक रहा है उस पेड़ की डाली से .......................

फिर भी डरते हुए, फिर भी सकुचाते हुए,
डाली डाली कभी निकलता हुआ, कभी छुपता हुआ
कभी डरपोक और कभी निर्भय वो चाँद.....................

उसकी चाँदनी फिर लगी है बिखरने ,
फिर उसका प्रकाश लगा है जगमगाने
आसमान हुआ सुनहला जैसे ,शरमाती हुई कोई दुलहन ......................

पेड़ की डाली डाली झूमती, देती है उसका साथ,
बादल भी खेल रहा, चाँद के साथ साथ
जीत रहा है वो चाँद ,अपनी हर सोच पर........................

फिर से खिल गया वो पुरा चाँद आसमान मे ,
फिर से पुरी हो गई उसकी हर आस ,
कदम से कदम बढ़ चले अब चाँद के साथ साथ.......................

मेनका कुमारी




मैंने अपनी पहली कविता १९९४ में लिखी थी. आशा है आपको पसंद आयेगी.

याद आई

आज उनकी याद आई
आंसू भर आए आंखों में
फिर सोच में पड़ गया मैं
हमें भी याद करेंगी संतानें हमारी
आज हम कुछ ऐसा कर रहे हैं
जिससे कायम रहेगी आज़ादी हमारी।
आज तो देश का यह हाल है
ख्याल नहीं किसी को आज़ादी का
आज हम एक ऐसे चोर हैं
जो लूटते हैं अपने ही घर को
आज अपना हाल देख
आंसू भर आए आंखों में
क्षमा चाहता हूं उनसे
जिन्होंने हमे आज़ादी दी।
क्षमा कर सकते हैं मुझको वो
क्षमा कर नहीं सकता मैं खुद को
आज़ादी के नशे में इतना खो गया था मैं
याद नहीं रही आज़ादी की परिभाशा मुझको।

--संजीव कुमार बब्बर




मेरा हिन्दी में कविता लिख्नने की शुरुआत बहुत ही रोचक है. इससे पहले मैं पिछ्ले पांच सालों से अंग्रेज़ी में कविताएँ लिखता रहा हूँ. जनवरी 2007 मे मेरी अंग्रेज़ी की एक कविता को पढ़कर मेरे एक मित्र श्री डी. पी. जैन मुझे डा. हेम भट्नागर के पास ले गये, जोकि दिल्ली वि. वि. के जानकीदेवी मेमोरिअल कालेज की पूर्व प्राचार्या रह चुकीं हैं. डा. हेम भटनागर सेवानिवृति के बाद पूर्वी दिल्ली में ‘संस्कार’ नाम की समिति का संचालन करती हैं जो बौद्धिक, सांस्कृतिक तथा सेवा के कार्यक्रमों के द्वारा समाज और हिन्दी से जुडी हुई है. ‘संस्कार’ द्वारा एक हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका ‘कलरव’ का भी प्रकाशन होता है.
डा. हेम भटनागर ने मेरी अंग्रेजी की कविता सुनने के बाद उसको सराहते हुए कहा कि जब मैं अंग्रेज़ी में लिख सकता हूँ तो हिन्दी में क्यों नहीं ? उनकी यह बात मुझपर गहरा असर कर गई और मेरी हिन्दी कविताओं का सिलसिला यूँ शुरू हो गया.
कलरव ने फरवरी 2007 में रचना के लिये एक विषय दिया ‘तेरे बिना’. यूँ तो यह विषय प्रेम की ओर ज्यादा इंगित करता है, पर मैने अपनी जन्मस्थली देहरादून में पर्यावरण का ह्रास होते हुए देखा है और पहाडों व पेड-पौधों की चीत्कार भी सुनी है. यही कारण बना मेरी पहली हिन्दी कविता का, जिसका शीर्षक है ‘ओ मेरी प्यारी वादी’. ‘ओ मेरी प्यारी वादी’ कलरव व अनुभूति में प्रकाशित हो चुकी है.

ओ मेरी प्यारी वादी

तेरे बिना न होती
सुबह की सुनहरी धूप
न होता अठखेलियाँ करता वो पवन
और न ही मचलते मासूम सुमन।
हिमालय की न होती हिमाच्छादित चोटियाँ
न ही होती सफ़ेद कोरी चादर निश्चल
और हरियाले मैदानों पर न रंग बिखेरती तितलियाँ
हाँ यही तो थीं मेरी प्यारी वादियाँ।
पर अब कहाँ है वो धूप
न ही हैं धवल चोटियाँ
कहाँ है वो निश्चल पवन
बस हैं अब नंगे पहाड़ और मैला पवन।
निगाह गड़ाए हैं हम पर
शिकायतों का पुलिंदा लिए
जो निर्झर स्रोत बहा करते थे कल-कल
अब बहा रहे हैं आँसू अविरल।
बेबस भीगी नज़रें कह रही हैं मानों
बस भी करो अब निर्दयी मानव
ऐसा न हो हमें कर खाक
खुद हो न जाओ तुम ही खाक।

--अरविन्द चौहान



पहली कविता तो पता नहीं कब लिखी थी.. ना ही उसके बारे मैं कुछ याद है, हाँ मेरी जो कविता सबसे पुरानी है.. वो यह है. भारत-पाकिस्तान के मुद्दे पर मैं हमेशा ही संवेदनशीन रहा हूँ... उसी का परिणाम है यह कविता.

हि‍मालय क्‍यों डगमगा रहा है

उधर देखो, हि‍मालय क्‍यों डगमगा रहा है
ना कोई भूकंप आया है
ना कि‍सी तूफान में ताकत है
फि‍र क्‍या है
जो इस पहाड़ को हि‍ला रहा है
शायद यह नाराज है
हमने जो खून बहाया है
इसकी गोद में
आतंक का दामन छुपाया है
भारत को चीरा
और पाकि‍स्‍तान को बनाया है
खैर थी इतनी भी
पर हमने दुश्‍मनी को बढ़ाया है
यही वजह है शायद
आज हि‍मालय हि‍लता ही जा रहा है
पहले खीचं डाली सरहद
फि‍र आसमां को बाटां
मां की छाती से बच्‍चे को छीना
मजहब के नाम पर
यह क्‍या गुनाह कि‍या
रास ना आया तभी
अडि‍ग गि‍री डगमगा रहा है
सि‍यासत के गलि‍यारों से
गदंगी की बू आती है
जो अमन के बजाए
कारगि‍ल को लाती है
ना छुपने दो उन फरि‍श्‍तों को
ना झुकने दो उन अरमानों कों
जिन्होने दोस्‍ती का दि‍या जलाया है
वरना देख लो अभी से
हि‍मालय डगमगा रहा है
घर जले थे पंजाब में
तपि‍श है अभी उस आग में
देख लो चाहे तुम
महीने लग जाते हैं पहुचने में
अमृतसर और लाहौ्र के
चन्‍द लम्‍हों के फासले में
ना जाने हश्र क्‍या हो्गा
यह हि‍मालय हि‍लता ही जा रहा है
गलती जो कर दी थी कभी
ना दोहराओ तुम अभी
छा जाने दो खुशी
उन बुझे बुझे से चेहरों पर
जो दो ना पायें हैं जी भर
बि‍छड़े हैं जबसे दि‍ल जि‍गर
कैसे भूल जाते हो
दर्द धरती के स्‍वर्ग का
इंसान हैं वो
जीने का हक उन्हे भी दो
दोस्ती का पैगाम लाऔ
तोड़ डालो मुहं उस तीसरे का
जो हुंकारता है दूर से
और हमारे बीच टागं अड़ाता है
देर ना हो जाए कहीं
क्‍योंकि‍ हि‍मालय डगमगा रहा है
सब रास्‍ते खोल दो
मिटा दो सरहद की जंजीरों को
भारत-पाक चलो उस राह पर
जहां अमन नजर आता है
कहीं एसा ना हो जाए 'ज़ालि‍म'
अपवादों की धरती पे
टूट जाए यह पहाड़
और मि‍टा दे सरहद सदा के लि‍ए
यह हो जाएगा
क्‍योंकि‍ हि‍मालय हि‍लता ही जा रहा है

--सुनील डोगरा ’जालिम’




मैंने कवितायें लिखना १९९४ में शुरू किया था। किसी भी चीज़ पर, अपने आसपास देख कर कवितायें लिख लिया करती थी। तब डायरी नहीं लिखती थी इसलिये किसी भी कागज़ पर लिख लिया करती थी। पर बाद में जब डायरी में कविताओं को लिखना प्रारंभ किया तो पहले की लिखी हुई कवितायें भी उसमें लिख डाली। मुझे ठीक से अब याद नहीं कि कौन सी कविता मेरी पहली थी। लेकिन इतना जरूर है कि जो कविता मैं भेज रही हूँ वो पहली कुछ कविताओं में से ही एक है। वर्ष १९९४ पर तारीख याद नहीं। ये कविता मैंने छत से आकाश में चाँद की ओर देखते हुए लिखी।

चाँदनी

काश कि मैं एक तारा होती
चाँद के एकदम पास मैं होती
चाँद के उजियारे से मैं
अपने अँधेरे को मिटाती।

दूर आसमान से मैं
पूरी दुनिया को देखा करती
इतने बड़े जहान में
अपने प्यार को खोजा करती।

किसी बात की चिंता न होती
किसी का मुझको डर न होता
एक तरफ होता चंदा प्यारा
उसकी चंदनिया बनके चमका करती।

--गीता मोटवानी




वैसे तो माँ कहती थी की मैं जब चार साल की थी तो टेलीफोन पर कुछ राईम कर के गाती रहती थी, तो पहली कविता तो वही हुयी पर उसका लेखा कहीं नहीं है. उसके कई सालों बाद पहली कविता ९७ में लिखी थी, फ़िर लगभग दो साल बाद ९९ में लिखनी शुरू की, पर डायरी खो गई. ये कविता जो भेज रही हूँ २००० की है. इसे ही पहली कविता मानती हूँ. उसके पहले कुछ छोटी तुकबंदियाँ सी की थी.

उस साल पापा के ट्रांसफर के कारण हम सपरिवार पटना आ गए थे. नए घर की खिड़की से एक विशाल पेड़ नज़र आता था जिसमें पीले फूल खिलते थे. उस वक्त आस पास वालो से ज्यादा दोस्ती नहीं हुयी थी और पुराने शहर और मित्रो की बहुत याद आती थी. खिड़की के सामने टेबल कुर्सी पर बैठे पेड़ को देखते हुए ये कविता लिखी थी. ये मेरी उस वक्त की सबसे लम्बी कविता थी, और अतुकांत थी. उसके पहले मेरे ख्याल से तुक का मिलना अनिवार्यता थी.

लिखने का सिलसिला शुरू हुआ तो लिखती ही रही फ़िर मीडिया से जुड़े रहने के कारण समीक्षाएं, कहानी वगैरह भी लिखी पर मन कविता लिखने में ही लगता था. अपनी कविताओं को लेकर काफ़ी दिनों तक बहुत स्वतात्मक(possessive) रही थी इसलिए कम लोगो को पढ़ाती/सुनाती थी. ब्लॉग पर पहली बार अपनी कवितायेँ लिखनी शुरू की हैं, और अपनी पहली कविता आज हिंद युग्म को भेज रही हूँ.

इंतज़ार

मेरे घर के सामने एक पेड़ है
उस पेड़ में खिले थे पीले फूल
एक पीली चादर बिछी रहती थी उसके नीचे
मैं जब भी वहाँ से गुजरती
हवा के झोंके से एक दो फूल मुझपर गिर जाते

मुझे लगता था
इन चटख रंगों, फूल की कोमलता से
पेड़ मुझे दिखाना चाहता है
की अभी भी दुनिया में खुशी है
वह पेड़ फूलों से ढका बहुत खुश दिखता था
उसी तरह जैसे मेरे होठों पर एक मुस्कान रहती है

मैं अक्सर सोचती थी
की जब सारे फूल गिर जायेंगे तो?

मौसम बदला,
मेरे घर के सामने अब एक ठूंठ है
जब हवा चलती है
उसकी नंगी शाखें मातम मनाती हैं
रास्ते की धूल जब मुझपर गिरती है
तो मन में हाहाकार उठता है

कितना करूँ लगता है वह पेड़
अपनी नंगी शाखों से आस्मान को देखता है
जहाँ फूल थे अब वीरानगी है
अब हवा पीली चादर नहीं बिछाती
अब उसकी फलियाँ मधुर सरगम नहीं छेड़ती
सब रीता सा लगता है
मुझे अब पता चला अकेलापन क्या है

पर अब वह पेड़ मुझे और भी अच्छा लगता है
क्योंकि मैं उसके साथ अपना अकेलापन बाँटती हूँ
और जब वसंत आएगा
तो उसकी पत्तियों को देख कर
मेरा यकीन और पक्का होगा की

तुम जरूर आओगे...

--पूजा उपाध्याय




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31 कविताप्रेमियों का कहना है :

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

हिन्द-युग्म को पहली कविता में शतक जमाने के लिए ढेर सारी---(उतनी ही जितनी की आई०पी०एल-के दर्शकों ने बजाई थी)--तालियॉ-----।
-सभी कविताएँ अच्छी हैं ---कुछ तो ---इतनी अच्छी की -----बेहतरीन में शुमार की जा सकतीं ----। मुकुलजी की कविता---बाकी रह जाती हैं---तरूश्री शर्मा की कविता-उड़ान---पूजा उपाध्याय की -इंतजार- ने मुझे विशेष प्रभावित किया।--देवेन्द्र पाण्डेय।

Pramendra Pratap Singh का कहना है कि -

मै पहला ही अंक पढ़ पाया था बाद के अंको को पढ़ने का समय ही नही मिल पाया, इस बार के अंक में सभी कविताऐं बेहतरीन लगी, किसी एक का नाम लेना, सभी की प्रथम कविता का अपमान होगा।

अभी तक मै पिछड़ रहा था, आज ही अपनी पहली कविता भेजता हूँ। आज मतलब आज :)

Anonymous का कहना है कि -

Shatak lagane ke liye badhai. Sabhi poems bahatareen lagi. Subse acchachi thi Purnima Barman or Sanjeev Kumar Babber ki poem.

mehek का कहना है कि -

shatak purti hone par bahut badhai,baki bhagon ki tarah is baar ki kavitayein bhi shabdon ka sagar,bhav se sampurn,bahut hi sundar,sabhi ko bahut badhai.

KAMLABHANDARI का कहना है कि -

ush samay to yaad karna atyant rochak pal hote hai jab humne apni pahli kavita likhi thi .hind-yugm ke madhyam se we bhole bisre pal phir yaad aa gaye . sabhi ki pahli kavita bahut rochak hai .meri taraf se sabhi pratibhagiyo ko dher saari badhaiya.

Dr SK Mittal का कहना है कि -

शतक पुरा होने पर हार्दिक बधाई
शीघ्र सहस्त्र का आंकडा भी पुरा होगा और हम जश्न मनायेंगे

मेरे गुलशन के सुमन
मेरी आँखों के भुवन
मेरे जीवन के हमदम
मेरी सांसो की सरगम
मेरे दिल की धड़कन
मेरी कामना सरवम
तुम्हारा साथ रहे हरदम

राधे राधे
गौर श्याम की मंद हँसन लखि, ऐसो कौन जो धीर ना धरैगो
मौर मुकट कटी काछनी तिरछी चितवन द्रग,दौड़ आरती कुञ्जबिहारी की लैवेगो
मीरा सूर खान रस में रस, सखियन संग ब्रिन्दावन में जाये बसेगो
जय बिहारी जय कान्हा जय गिरिधारी की तान लगा द्रग नीर भरैगो
मंगल में जाईके, राधा वल्लभ दर्शन पाइके ब्रिन्दावनवास सफल करैगो
बोली बिशाखा गोपियन के संग, राधाप्यारी के वचन,ये प्रेमी भवसागर पार लगैगो
'सुन री सखी' तू कर पार ताल तल्लिया, मेरो तो जीयो श्याम चरणों में ही बसैगो
राधे राधे.............................

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Pooja Anil का कहना है कि -

पहली कविता का शतक लगाने पर हिंद युग्म को बहुत बहुत बधाई .प्रतिदिन तरक्की करते क़दमों को देखकर बड़ी खुशी हुई , हमारी शुभकामनाएं हैं कि आप ऐसे ही दिन दुनी और रात चौगुनी तरक्की करें .

सभी कविताएँ बहुत अच्छी हैं, और कहीं कहीं तो कविताओं से भी रोचक उनकी भूमिकाएँ हैं . सभी प्रतिभागियों को बधाई एवं शुभकामनाएं .

राहुल पाठक द्वारा बनाया हेडर ध्यान आकर्षित करता है , सम सामयिक है .

^^पूजा अनिल

Unknown का कहना है कि -

Pooja Upadhay Ki kavita itni lazabab hai ki uspar comments karna insaani bas me nahi hai

Unknown का कहना है कि -

शतक के लिए सभी को बधाई
पहली कविता पर काव्य पल्लवन बहुत ही अच्छा लगा
सुमित भारद्वाज

सीमा सचदेव का कहना है कि -

सभी कवियों /कवयित्रियों को हार्दिक बधाई और हिंद युग्म को शतक पूरा कराने पर बधाई के साथ साथ दूसरा शतक जमाने के लिए शुभकामनाएं भी ......सीमा सचदेव

Vinod Rajagopal का कहना है कि -

gसभी कवियों /कवयित्रियों को बधाई. हिंद युग्म की तरक्की देख कर बोहोत खुशी हुई...

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

महिलाएँ तो हर जगह बाजी मार रही हैं। हिन्द-युग्म के 'पहली कविता विशेषांक' के इस पाँचवें भाग में भी २० में ११ कविताएँ कवयित्रियों की हैं। बहुत खूब!

पहली कविता से जुड़ी सभी कवियों की यादें पढ़कर बहुत आनंद आया। अधिकतर कवि अपने शुरूआती लेखन से ही बहुत संवेदनशील रहे हैं।

पूर्णिमा जी की कविता और उसकी भूमिका दोनों ही अत्यंत पसंद आये।

कमला भंडारी की पहली कविता जिस तरह के संवेदन विषय को छूती है, उससे यह संजीदा कवयित्री होने का आभास होता है। आशा है अब इनकी लेखनी बहुत पारखी हो चुकी होगी।

आशीष जैन जी अब इसी तरह से मिलते-जुलते शब्दों की माला पिरोना ज़ारी रखिए।

प्राजक्ता जी, बहुत बढ़िया।

दिनेश जी, आपने अच्छा किया जो झिझक तोड़ दिया। इस आयोजन का मान तो बढ़ा कम से कम।

सुनीता जी, आप ;इसी तरह दूसरों के दुःख में शामिल होती रहें।

भूपेन्द्र जी मतलब शुरू से ही शरारती शब्दशिल्पी रहे हैं। वाह भैया वाह!!!

हेमज्योत्सना जी का भी जवाब नहीं।

राजीव जी, भूमिका पढ़कर आनंद आया। हर गाँव में एक पेटू पंडित अवश्य होता है।

गिरिश जी, सर्वप्रथम तो इस मंच पर आपका स्वागत। आपकी बातें हमेशा इस दुनिया में बाकी रह जायेंगी। देखिए कुछ शुरूआती शब्द तो हिन्द-युग्म ने ही संग्रहित कर लिये हैं।

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

तनु जी, यह कोशिश ज़ारी रखें।

श्याम जी, आपने बेधड़क सच्ची भूमिका लिखी, बहुत-बहुत शुक्रिया। लगे रहिए मियाँ, लगे रहिए।

बेला जी, बिलकुल भेजिए। हर विषय पर भेजिए। तभी तो हम पढ़ने वालों को नई-नई चीज़ें मिलेंगी।

तरूश्री जी, बिलकुल आप अब इसे ही पहली कविता मानिए। आपकी इस कविता में बहुत दम है।

मेनका जी, जो संचित हो पाया, वही अपना होता है और साथ देता है। हम भी इसे ही आपकी पहली कविता मानेंगे।

संजीव जी, आपकी आशा ठीक थी।

अरविन्द जी, सच में कहानी रोचक है।

ज़ालिम जी, अपना यह तेवर कायम रखें आगे की कविताओं में भी।

गीता जी, आपने तो कलम पकड़ते ही कविता लिखना शुरू कर दिया था। क्या बात है, बहुत बढ़िया

पूजा जी, अब हिन्द-युग्म को कविताएँ भेजना शुरू कर ही दिया है तो क्रम ज़ारी रखिए।

डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी का कहना है कि -

देश हमारा आँख का तारा पूर्णिमा वर्मन जी के बचपन के भाव काश! हम सभी के साथ जीवन भर रह पाते,कमला भंडारीजी की कविता की तो बात ही निराली है, जिसने दुश्मन की जान ही ले डाली है, आशीषजी का पहला जाम ही दमदार है,
इंसां है तू भी,
दर्द होता है।
जाम बनके,
तू भी होठों से छलकता चल।। प्राजक्ताजी ने संगीत का बखूबी चित्रण किया है,दिनेशजी ने आगे चलते रहने क राज बताकर सभी का मार्गदर्शन किया है,दम साध, कमर कस, आगे बढ़, किस्मत के जाले बुनता जा !
ग़म के काटों की चुभन देख और फूल खुशी के चुनता जा !
सुनीताजी ने कजरी के माध्यम से संवेदनशीलता का कितना अच्छा परिचय दिया है! राघवजी आपने अच्छा किया हमें बताकर कम से कम हम तो सावधान रहेंगे और आपकी तरह हम तो बेंत नहीं सहेगें.

Nikhil का कहना है कि -

नियंत्रक महोदय,
इस शतकीय पारी के लिए विशेष बधाई....अब आगे के रन में हम भी इजाफा करेंगे, ये पक्का वादा....सभी कवितायें अच्छी है...कविता लिखने की शुरुआत कैसे हुई, ये जानना अपने आप में दिलचस्प है....सबसे ख़ास बात ये कि अधिकांश कवि हमारे मंच पर पहली दफा दिखे हैं...मतलब हमने कई नए कवियों को अपने साथ जोड़ लिया....
लगातार लिखते रहे हिन्दयुग्म पर....

निखिल

Rama का कहना है कि -

डा. रमा द्विवेदी said...

पहली कविता के शतक के शुभ-अवसर पर हिन्द युग्म को अनेकानेक शुभकामनाएं एव
म बधाई.....’
सभी कवियों एवं कवयित्रियों की कविताएं विविध भावों की बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है...सभी को मेरी ओर से हार्दिक बधाई व मंगल कामनाएं....

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

हिन्द युग्म ने पाठकों को पहली कविता के रूप में एक ऐसी सौगात दी है जिससे द्वारा वे लोग भी आगे आये हैं जो कवितायें प्रतियोगिता में भेजने से पीछे रहते थे.. अब पूरी उम्मीद है कि वे लोग भी प्रतियोगिता में शामिल होंगे...

नियंत्रक, अवनीश जी व अन्य सभी बधाई के पात्र हैं...वैसे इनके प्रयास पाठकों के योगदान से ही सफ़ल हुए हैं..उनका भी धन्यवाद..

anju का कहना है कि -

बहुत मज़ा आया
आजकी कवितायेँ पढ़कर इतना अच्छा लगा
राघव जी की कविता बहुत अच्छी थी और भी सभी कवितायेँ पसंद आई
बहुत खूब
सभी कवियों को मेरा नमन
धन्य है उनकी कलम
aur badhayi Hindyugm ko

Anonymous का कहना है कि -

कल सारी रचनायें नही पढ सका. अतः टिप्पणी भी खण्डों मे देनी पढ रही है-
अहिंसा बिन मानव नहीं ,
प्यार बिन मानव नहीं ,
आत्मा बिन मानव नहीं ,
वह तो पशु समान है ,
हेमज्योत्सना पराशर
जी की के भाव कितने सुन्दर हैं,राजीव रंजन प्रसाद
जी की रचना जैसा कि उन्होंने बताया वास्तविक रूप से बचपन की रचना है, ऐसी अनुभुति होती है,तनुजी की रचना रिश्तों की सच्चाई उजागर करती है- ईश्वर की दुनिया में हम एक बार जीते हैं,
और एक बार मरते हैं।
पर रिश्तों की दुनिया में कभी हर पल जीते हैं,
श्याम सखा 'श्याम' जी ने बिल्कुल सच ही लिखा है, पहली कविता देशभक्ति से प्रारम्भ होती है या एकल प्रेम व आकर्षण से,बेला मितलजी ने अपने वास्तविक प्यार की अनुभुति का कितना सुन्दर चित्रण किया है-
मुझे प्यार है उस तुम से,
जो मेरे जीवन में लाता बहार
मुझे प्यार है मुझ से,
जो तुम में समा जाता है अपार।।
तरुश्री शर्मा जी सभी सफ़्ररों का एक ना एक दयरा होता है, जो जितनी जल्दी समझ लेता है, उसकी उडान कुछ और ऊंची हो जाती है आप भी शायद उन्ही चन्द शौभाग्यसालियों मे से हैं.मेनका कुमारी
जी की रचना परिपक्व रचना है जैसा उन्होंने स्वीकार भी किया है-
फिर से खिल गया वो पुरा चाँद आसमान मे ,
फिर से पुरी हो गई उसकी हर आस ,
कदम से कदम बढ़ चले अब चाँद के साथ साथ.......................
संजीव कुमार बब्बरजी आज हम सभी के ये ही हाल है आजादी के नशे में परिभाषा ही भुल गये हैं-
आज़ादी के नशे में इतना खो गया था मैं
याद नहीं रही आज़ादी की परिभाशा मुझको।
अरविन्द चौहान जी की रचना ओ मेरी प्यारी वादी एक परिपक्व रचना है क्योंकि यह उनकी पहली रचना नहीं, उनकी हिन्दी की पहली रचना है.सुनीलजी की रचना बेहद सराहनीय है-कैसे भूल जाते हो
दर्द धरती के स्‍वर्ग का
इंसान हैं वो
जीने का हक उन्हे भी दो
दोस्ती का पैगाम लाऔ
तोड़ डालो मुहं उस तीसरे का
जो हुंकारता है दूर से
और हमारे बीच टागं अड़ाता है
गीता मोटवानी जी की चांदनी उनकी कविताओं के माध्यम से आप्लावित करती रहैंगी एसी कामना है.पूजा जी सारे फ़ूल कभी भी नहीं गिरैंगे, कुछ फ़ूल तो हमारी कवितायें बचा ही लेंगी ना.
रन्जूजी क्या बात है आपकी कविता बहुत प्यारी लगी- एक प्यार का ,
मीठा बोल सतरंगा ..
और महकते फूलों की
आंच सा हर पल ..
इस धड़कते दिल के ..
नाम कर देना!!
गिरीश बिल्लोरे "मुकुल" जी व भूपेन्द्रजी की रचनाएं भी दिल से निकली व दिल को छुने वाली हैं.महिलाओं की ग्यारह कवितायें होना, आश्चर्य की बात नही है, महिलायें तो स्वयं ही कविता का रूप होती हैं.सभी कवियों /कवयित्रियों को हार्दिक बधाई और हिंद युग्म को शतक पूरा कराने पर बधाई के साथ साथ शुभकामनायें.
www.rashtrapremi.blogspot.com

Prav का कहना है कि -

puja upadhaya ki kavita kasam se bolta hu dil ki aawaz hai ye..isko samajhne ke liye maahall chahiye i mean light off karo andhera karo kamra aur phir pado kavita .phir dekho samajh me aayega......well done puja .....keep it up ummeed hai ki aage bhi hamme aaur sunne ka maoka milega

Anonymous का कहना है कि -

हर पहली कविता की एक कहानी होती है. युग्म ने इन सभी कथाओंसे एक उपन्यास रचा और शतकीय पारी का इतिहास भी ! सभी कवियों तथा आयोजकोंको शुभकामनाएं और बधाइयां.

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

चार कदम केवल चले देखो शतक भी आ गया
कारवाँ कवितओं के संग यहाँ तक भी आ गया
जब मिले हैं हाथ तो ये हुजूम बढ़ता जायेगा
सैकडों शतकों पत्थर पर भी थक ना पायेगा
प्यार की शीतल हवा मिलती रहे बस आप से
हिन्द-युग्म वट-वृक्ष अब अम्बर मं ही लहरायेगा

vijaymaudgill का कहना है कि -
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vijaymaudgill का कहना है कि -

हिन्दी-युग्म को पहली कविता में शतक लगाने के लिए बहुत-बहुत बधाई। सभी लोगों की कविताएं अच्छी हैं और बहुत पहली कविता सभी ने बहुत बढ़िया लिखी है।

पूजा जी, आपका अहसास और आपकी उम्मीद मुझे पसंद आई। क्योंकि उम्मीदों पर ही दुनिया क़ायम है।
तुम ज़रूर आओगा। और अबकी जब आओगे तो पतझड़ की तरह जाओगे नहीं बल्कि बसंत की तरह सदा के लिए मेरे पास रह जाओगे। बहुत अच्छा लिखते रहें शुभकामनाएं आपके साथ।

सुशील छौक्कर का कहना है कि -

सभी कविताये अच्छी लगी। पंतग वाली पढ्ते ही दिल को छू गई। संजीव वाली ने असर किया। इंतजार वाली हिम्मत दे गई ।

डॉ .अनुराग का कहना है कि -

sabhi kavitaaye bahut achhi hai puja aor tanushree ne khas taur se prabhavit kiya...

श्रद्धा जैन का कहना है कि -

Shatak pura hone ki badhayi
sabhi ki mehnat rang laa rahi hai jaan kar achha lag raha hai
aise hi aage badhte raho yahi ishwar se prathna hogi

श्रद्धा जैन का कहना है कि -

kitna sukhad ashcharya hai ki hamare beech aise bhi kavi hain jinhone apni phali hi kavita se apne jhande gad diye hain

sabhi ko meri taraf se hardik subhkamanye

Unknown का कहना है कि -

उदास है कमला
चाची ने डांट दिया
सुबह-सुबह....

चाची कहती है- “बंद कर अब ये उछलकूद,
दिनभर अड्डू खेलना, गुट्टी खेलना,
इस उम्र में लड़कियों को ये सब शोभा नहीं देता,
घर के कामों में हाथ बंटा,
अब तू बड़ी हो गयी है,
पराये घर जायेगी, तो वहाँ क्या करेगी,
ये गुट्टी खेलना, अड्डू खेलना वहाँ नहीं चलेगा,
अभी से आदत डाल ले, कुछ घर के काम सीख...”

चाची कहती रही....
और कमला ऐसे सुनते रही
जैसे उसने कोई बहुत बड़ा अपराध किया हो
और उसे उसकी सजा सुनाई जा रही हो....

आज पहली बार उसने ये सब नहीं सुना था,
थोड़ा-थोड़ा सुनते आई थी वो बचपन से,
सैकड़ों बार उसके कानों में घोले गए थे
ये शब्द “कि वो बड़ी हो गयी है”

और हर बार
इन शब्दों को अनसुना करके
वो फिर मगन हो जाया करती थी
अपनी सहेलियों के साथ
सैनदेवी-कैचीमाला खेलने में.....

लेकिन आज उसे ऐसा लगा
जैसे उसकी आज़ादी छिन गयी है
माँ, चाची और आमा की डांट
उसे कभी भी इतनी बुरी नहीं लगी
जितनी आज उसने महसूस की....

याद है उसे वो दिन
जब पिछले साल
पहली बार वो अपनी सहेलियों के साथ
मेला देखने गयी थी
अपने वजीफे के जमा पैसों से
बहुत कुछ खरीदा था उसने मेले से...

माँ के लिए- एक बिंदी का पैकेट, एक जोड़ी बिच्छु, थोड़ा सिन्दूर,
आमा के लिए- एक नया हुक्का, तीन तमाकू की पिंडी, कुछ बीड़ी के बण्डल
घर के लिए- आधा किलो मिसरी, पावभर जलेबी और एक सुप्पा......

उसने अपने लिए भी कुछ ख़रीदा था.....

शाम को जब वो घर पहुची
तो माँ के सामने उसने सारा सामान फैला दिया
सिवाय अपनी चीज़ों के...

माँ ने पूछा- अपने लिए क्या लायी..??
कमला ने डरते-डरते जवाब दिया- एक जोड़ी पैंट-कमीज का कपडा...
माँ ने एक जोर का चांटा मारा
कमला रो पड़ी....
उसने देखा था कई बार
अखबार के पन्नों में
लड़कियों को पैंट पहने....
उसे अच्छा लगता था......!

उसके छोटे-छोटे सपने
कब टूटते गए, उसे पता ही नहीं चला,
आज वो सब दिन फिर से याद कर रही है
जैसे कुछ हुआ ही न हो....

शाम का वक्त है.....
कमला उदास बैठी है,
चाची ओखल में धान कूट रही है,
आमा आज भी बाहर हुक्का गुडगुडा रही है,
माँ अभी नहीं लौटी खेतों से....!

(विक्रम नेगी)
पिथौरागढ़
+91-9917791966
E-Mail : negiboond@gmail.com

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