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Monday, April 28, 2008

पुनः प्रकाशित- अंधेरे से उजाले तक : काव्य पल्लवन


काव्य-पल्लवन के अप्रैल २००८ अंक के लिए हिन्द-युग्म ने कवियों को बहुत कम समय दिया था। कई लेखकों की शिकायतें मिलीं कि हिन्द-युग्म ने बहुत जल्दी-जल्दी में यह अंक प्रकाशित कर दिया। लेखकों को लिखने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिला। काव्य-पल्लवन का वर्तमान अंक जोकि 'अंधेरे से उजाले तक विषय पर केन्द्रित है, को प्रकाशित करने के बाद हमें ५ कवियों की कविताएँ मिलीं। इसलिए हमने सोचा कि इस अंक को पुनः प्रकाशित करना चाहिए। तो सभी दुबारा से पढ़ें, अब कविताओं की संख्या २० हो गई है।






काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन




विषय - अंधेरे से उजाले तक

विषय-चयन - मोहिन्दर कुमार

अंक - चौदह

माह - अप्रैल 2008






*** प्रतिभागी ***
| कमलप्रीत सिंह | रेनू जैन | सविता दत्ता | अर्चना शर्मा | तरूश्री शर्मा |सतीश वाघमारे | विपिन चौधरी | बी. राघव | महक | श्यामसखा "श्याम" | अमित साहू |
| प्रो सी बी श्रीवास्तव | देवेन्द्र कुमार मिश्रा | पूजा अनिल | सुरिन्दर रत्ती | रचना श्रीवास्तव |
| सीमा सचदेव | विवेक रंजन श्रीवास्तव | डा0 अनिल चड्डा |विनय के जोशी |

~~~अपने विचार, अपनी टिप्पणी दीजिए~~~




अंधेरे की दुनिया
कितनी भयावह और उदास होती है , जब कि
उजाले की एक किरण ,
बल्कि उसका अहसास ही
हमारी सोच को प्रकाश्मय
बनाकर
हमें तमाम रिक्तता के बावजूद सक्षम बनता है
यूं भी
अँधेरा महज़ अँधेरा तो नहीं
उस के गर्भ में छिपी हैं अनेकों कल्पनाएं और सुखद अनुभूतियाँ
बशर्ते कि हम
उजाले में लौट आने के लिए
ईश वर्जित न हों
आधिक्य किसी भी अनुभव या अहसास का भला नहीं होता
प्रकाश ही प्रकाश -
और वेह सदा सुखदाई हो ज़रूरी तो नहीं
जहाँ अँधेरा हमे निराशा और कभी कभी उसकी पराकाष्ठा तक पहुँचा देता है ,
वही उजाला और उसका अनुभव हमें आशा स्फूर्ति और जीवन ज्योति प्रदान करता है।

-कमलप्रीत सिंह



कुछ शब्द पड़े थे कानों में,
गली, हाट मैदानों में,
सुनकर के दिल घबराया,
पलकें नम, जी भर आया......

तमसो माँ ज्योतिर्गमय.....
तमसो माँ ज्योतिर्गमय.....

बेटी को जो जन्म दिया,
माँ मनहूस है कहलाई,
बंटते खील बताशे तब,
अब रोटी को तरसाई।
पहले से जो होता ज्ञान,
कोख में ही ले लेते जान.....

सुनकर के दिल घबराया,
पलकें नम, जी भर आया.....

तमसो माँ ज्योतिर्गमय.....
तमसो माँ ज्योतिर्गमय......

कॉलेज जा के क्या करना,
इक दिन जाना है ससुराल,
चूल्हा - चौका सीखो तुम,
भाई पे ना कर आँखें लाल।
भाई बुढ़ापे की पूँजी,
तुम अमानत दूजे की.....

सुनकर के दिल घबराया,
पलकें नम, जी भर आया.....

तमसो माँ ज्योतिर्गमय.....
तमसो माँ ज्योतिर्गमय.....

बेटा मेरा डॉक्टर है,
खर्चा लाखों का सर है,
सारा क़र्ज़ उतारोगे,
बँगला, गाड़ी भी दोगे।
पगड़ी मेरे चरण धरो,
या जा किसी सड़क बिको...

सुनकर के दिल घबराया,
पलकें नम, जी भर आया.....

तमसो माँ ज्योतिर्गमय.....
तमसो माँ ज्योतिर्गमय.....

कन्यादान करूंगा जो,
स्वर्ग में जगह बनाऊंगा,
जिस दिन बेटी होए विदा,
काशी जा गंगा नहाऊंगा।
बेचूँगा अपना गुर्दा,
हो जाए बेटी का ब्याह...

सुनकर के दिल घबराया,
पलकें नम, जी भर आया.....

तमसो माँ ज्योतिर्गमय.....
तमसो माँ ज्योतिर्गमय......

बहु ने है बेटी जन्मी,
किस घड़ी बनी दुल्हन अपनी,
फिर बेटे का ब्याह रचाऊँ,
पोते की दादी कहलाऊँ।
इसका काम तमाम करो,
तेल का कुछ इंतजाम करो...

सुनकर के दिल घबराया,
पलकें नम, जी भर आया.....

तमसो माँ ज्योतिर्गमय.....
तमसो माँ ज्योतिर्गमय.....

-रेनू जैन



विधाता को क्यूँ कोसा
क्यूँ नहीं कर्म पर भरोसा
कि उसने
सर्वांग सही सलामत दिए
क्या ये कम है ?

बुरे और अच्छे दिन
आते और जाते हैं
क्या भले चंगे मानव
इससे घबराते हैं?

उठो कर्म पथ पर बढ़ो
भाग्य को कोसना बन्द करो
ईश स्मरण कर शुभारम्भ करो
होगी जो इच्छा प्रबल
बिगड़े काम बन जाएँगें
हम प्रगति-उन्नति से
भारत वर्ष को ही नहीं
विश्व को समृद्ध बनाएँगें

हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाना
कायरता है
बेकार प्रभु को कोसना
क्या यही मानवता है ?
अँधेरे से उजाले की ओर बढ़ने का
यही सरल उपाय है
स्वयं पर दृढ़ विश्वास
और अनुकम्पा प्रभु की
होती सदा सहाय है।

-सविता दत्ता



उजाले मे पहला कदम......
और मैने कहा...
मैं हूँ कहाँ.....
मैं हूँ कहाँ.....

चलते-चलते पता ही ना चला ....
की मैं कहाँ आ पहुँची..

कभी देखा ही ना था ऐसा मंज़र ....
ये मैं जहाँ आ पहुँची ..

आगे कुछ दिखता ही नही...
पीछे कुछ रहा भी नही ...

कैसी कशमकश मे है मेरा मन

अरे लडकी !
ये तू कहाँ आ पहुँची ....

जिंदगी को ढूँढती थी ..
प्यार को खोजती थी ...

इस खोज को अँधेरा
कहती मेरी कविता ..

पर जब से मिला है
अपना ही साया...

अपने साये अपनी रूह को
उजाला कहती मेरी कविता ...

अपनी ही गोदी मे
रखती हूँ सर..

अपनी ही जन्नत में शाम-ओ-सहर ....
पाती हूँ सब कुछ ...

जो मिला नही कभी
इधर-उधर ...
सोचती थी क्या..
और पाया है क्या...
अब कहना भी क्या..
और सुनना भी क्या...

बस रहने दो मुझे
इस आशियाने में अब...
आज हूँ मैं जहाँ..

बस यहाँ ...
बस यहाँ ...

उजाले की एक झलक को
आशियाना कहती मेरी कविता ...

अब जीना भी यहाँ
और मरना भी यहाँ ....

उजाले को पाने की
खुशी को बिखेरती मेरी कविता ...

अब जाना भी कहाँ
और फ़िर आना भी कहाँ ....

अंधेरो को अलविदा
कहती मेरी कविता ...

-अर्चना शर्मा



घर की इकलौती चिमनी...
डगमगाती थी।
रसोई के बचे तेल से,
कितना जल पाती थी?
बस्ती में बसा,
कोने का वो मकान...
रोशनी की परिभाषा,
यही चिमनी जताती थी।
और घर से बाहर,
कहीं दूर...
तेज़ धूप चिलिचलाती थी।
घर के सारे उलझे काम,
लौ के दम तोड़ने से पहले,
करने हैं पूरे,
दिन रात दुआओं में,
यही गुनगुनाती थी।
शाम ढल गई है,
उसे काम पर जाना है।
किसी की बारात के जश्न का,
झिलमिल लालटेन उठाना है।
यही तो सफर है उसका,
अंधेरे से उजाले तक।
-तरूश्री शर्मा



नहीं जानता मैं कि उस ओर क्या है
यहाँ से जुदा वहाँ और क्या है
जहाँ रोशनी है, वहाँ कुछ तो होगा,
अनबनी में शायद नया सच भी होगा...


सवालों में उलझा सा दिल का जहाँ है
परखूँ जवाबों को फुरसत कहाँ है
नहाता उजाले में कोई कल तो होगा
भरा उम्मीदों से कोई पल तो होगा ?


मैं हूँ मानता कि यह रस्ता नया है
सिवा हमारे न कोई गया है
पुकारे है मंझिल और जाना ही होगा
होनी है सुबह दिन को आना ही होगा !

- सतिश वाघमारे



हम सभी की यात्रा वस्तुत और अंतत
अँधेरे से उजाले तक की ही है
कभी जरुरत से ज्यादा लम्बी
तो कभी
उम्मीद से भी कहीं अधिक छोटी

जब हम लम्बी यात्रा से गुजरते है तो
अँधेरे कई मरतबा सामने आते हैं
और इंसान को मजबुत बनाते है

अंधेरे उजाले की आहट पा
छुप जाते है और
अपनी ही अंधियारी दुनिया से
गुफ्तगू करते है

उजाले अपने विस्तार के लिये
व्यर्थ भटका करते हैं
पर कहीं गति नहीं पाते

सच मानिये इस जीवन याञा में
अंधेरे ही हमें खुद के नजदीक लाते हैं
इन उजालों ने हमेशा हमें अपने आप से
दूर रखा है

अपने चमकीलेंपन पर इठलाते
उजालों को शायद नहीं मालूम
यह दुनिया अंधेरों ने
बहुत पहले से ही जीत रखी है।

- विपिन चौधरी



बड़ी मुश्किल से आये हैं अँधेरों से उजालों तक
कि हम तो चुग रहे फूली लगाकर जीभ चटाकारे
मगर वो कौन थे यारो, जिन्होंने हेतु हमारे
सहर्ष ही त्याग दिये स्वम के मुहुँ के निवालों तक...
बडी................

न जाने दीप कितने बुझ गये उस तेज़ आँधी में
हजारों वीर गुम हैं आज तक गुम हुई समाधि में
अगर गिनने कभीं बैठे नहीं गिन पायें सालों तक...
बडी.................

जिनकी कसरत कुचलना था रोज खूँख्वार घोडों से
सुबह के कलेऊ में मिलती थी दावत गर्म कोडों से
नहीं साबुत बचीं थी ओढने को, उनकी खालों तक...
बडी................

कफन तक बाँटते थे, दौर था, वो भाईचारे में
डूबते थे सैकडों सूर्य, आखों के सरारे में
कभी रुककर नहीं देखे, पाँव के जख्म छालों तक...
बडी................

अभी दुल्हन ने दस्तक दी, कि लो माँ ने बुला भेजा
कहा घूँघट की मेंहदी ने, प्रिये ! मुझको भुला के जा
बनें ना बेडियाँ आँसू, जो बहकर आये गालों तक...
बडी.................

बड़ी कुर्बानियों से फहराया है, इन तिरंगों को
चुकाई जान देकर के, बड़ी कीमत फिरंगों को
नहीं माँ भारती फिर से, पहुँच जाये दलालों तक...
बडी.................

बदल जाये ना, डर है, ये उजाला फिर अँधेरे में
कहीं फिर कैद ना हो जाये माँ, दरिन्दों के घेरे में
किसी बिधि टूटने की बात ना आये ख्यालों तक...
बड़ी मुश्किल से आये हैं, अँधेरों से उजालों तक...
बड़ी मुश्किल से आये हैं, अँधेरों से उजालों तक...

- बी. राघव



है ना बहुत गहरा अंधेरा है,
तेरे आसपास का कुछ भी
दिखाई नही दे रहा
झुंझलाहट,क़ैद का आभास
अंधेरों में गुम होती आवाज़े
कोई रोशनदान भी नही
अगर तुम महसूस करोगे
सब की हालत तेरे जैसी है
कोई मद्दत के लिए नही आएगा
इधर उधर टुकूर -२ क्या देख रहे हो
मैं हूँ,तुम्हारे अंदर का चिराग
थोडिसी हिम्मत कर,जलाओ मुझे
धुआँ उठेगा,साँस चढ जाएगी
पर साथ थोड़ी रौशनी भी आएगी
वही तुम्हे राह दिखाएगी
अंधेरों से उजाले तक का
तुम्हारे अस्तित्व का सफ़र
तय करने के लिए....

- महक



ज़ख्म था ज़ख्म का निशान भी था
दर्द का अपना इक मकान भी था

दोस्त था और मेहरबान भी था
ले रहा मेरा इम्तिहान भी था

शेयरों मे गज़ब उफान भी था
कर्ज़ में डूबता किसान भी था

आस थी जीने की अभी बाकी
रास्ते में मगर मसान भी था

कोई काम आया कब मुसीबत में
कहने को अपना खानदान भी था

उम्र से ही झुकी कमर थी नहीं
उनका बेटा हुआ जवान भीथा

था सुहाना बहुत सफर यारो
पर मुकद्दर मेरा थकान भी था

मर के दोज़ख मिला तो समझे हम
वाकई दूसरा ज़हान भी था

उम्र-भर साथ था निभाना जिन्हें
फ़सिला उनके दरमियान भी था

खुदकुशी "श्याम" कर ली क्यों तूने
तेरी किस्मत में आसमान भी था

- श्यामसखा "श्याम"



कभी मन के अंधेरे से
उजाले तक सफर किया है ?
क्या कभी आपने अपने
विचारों को जिया है?
जरा उतरिये मन की
गहराइयों के धुंधलकों में
देखिये खुदा ने क्या
दयार बक्शा है ..........
खो जाइये अंधेरों की
गर्त में इस तरह
कि टीमटीमाने लगें विचार
सितारों की तरह ..........
फिर देखिये एक विचार
क्या कर सकता है -
अंधेरों को उजालों में
बदल सकता है
'विचार' की मशाल से
जगमगा दीजिये दुनिया
लिखिए नई कविता
गढीये नई कहानियाँ
"विचार" एक मशाल है
बुझने ना दीजिये
"विचार" की चिंगारी
को हवा दीजिये
ह्रदय की दबी राख़ के
भड़काइये शोले
कुछ कीजिये ऐसा
कि दुनिया भी ये बोलें
" निराशा के अन्धेरें में
वो आशा की किरण था "
सूरज न सही हम
दीप की "लौ" तो हो लें ....

- अमित साहू



बड़ी तब्दीलियाँ हुई हैं अंधेरे से उजाले तक
नया दिखता है सब कुछ हर घर से दिवाले तक

पुराने घर पुराने लोग उनकी पुरानी बातें
बदल गई सारी दुनियाँ उनकी थाली से प्याले तक

चली है जो नई फैशन बनावट की दिखावट की
लगे दिखने हैं कई चेहरे उससे गोरे कई काले तक

ली व्यवहारों ने करवट इस तरह बदले जमाने में
किसी को डर नहीं लगता कहीं करने घोटाले तक

निडर हो स्वार्थ अपना साधने अक्सर ये दिखता है
दिये जाने लगे हैं झूठे मनमाने हवाले तक

बताने बोलने रहने पहिनने के तरीकों में
नया पन है परसने और खाने में निवाले तक

जमाने की हवा से अब अछूता कोई नहीं दिखता
झलक दिखती नई रिश्तों में अब जीजा से साले तक

खनक पैसों की इतनी हुई सुहानी बिक रहा पानी
नहीं देते जगह अब ठहरने को धर्मशाले तक

फरक आया है तासीरों में भारी नये जमाने में
नहीं दे पाते गरमाहट कई ऊनी दुशाले तक

हैं बदले मौसमों ने आज तेवर यों "विदग्ध" अपने
नहीं दे पाते सुख गर्मी में कपड़े ढ़ीले ढ़ाले तक

- प्रो सी बी श्रीवास्तव



माँझी हो न निराश,
जीवन सागर में उठते ज्वार ।
प्रभु में आशा रख, विश्वास,
खेता चल पतवार ।।

सुख-दुख का मेल है,
प्रकृति का खेल है।
खेलता चल इसे,
हिम्मत न हार ।।

जीवन सागर.....

शशि हो न उदास,
गृहण के बाद आये पूनम की रात ।
हर रजनी के अंत में, आता सदा प्रभात
वक्त का कर इंतिजार।।

जीवन सागर.....

क्रांति के बाद ही,
होता सदा सुधार।
पतझर के बाद आये,
बसंत बहार।।

जीवन सागर.....

दृढ हो संकल्प,
अटल रख विश्वास।
धैर्य और साहस से,
सिंधु करेगा पार ।।

जीवन सागर.....

- देवेन्द्र कुमार मिश्रा



किस उजाले की बात करूं तुमसे,
वो जो आता है हर रात के अंधेरे के बाद ,
या जिसे मन ढूंढ रहा अब तक ,
बरसों की तपस्या के बाद ,

तपस्या इस लिए कि ,
अपमान के कड़वे ज़हर भी पिये मैंने ,
सारी दुनिया के ताने भी सहे मैंने,
दुःख अपना छिपाकर दूसरो के आंसू भी लिये,
सब की खुशियों के लिये अपने सुख कुर्बान भी किये,

सिर्फ़ यही तो कहा था लोगों से ,
" भाई -भाई हो , आपस में मत लड़ो, तुम,
इंसान बन कर आए हो तो प्यार से रहो तुम,
मनुष्य जन्म पाया है तो ,
इश्वर को भी याद करो तुम",

पर अंधेरे कि चादर इतनी काली है छाई ,
कि लोगों को मेरी बात समझ नहीं आई ,
कह दिया मुझसे , "अपने उपदेश अपने पास रखो ,
हमारी अपनी दुनिया है , तुम अपनी दुनिया देखो",

चीर चीर हुआ ह्रदय, घायल हुए प्रयास,
गिरकर चोट खाकर भी मिटती नहीं है आस ,
तुम्हे दिखे कोई रास्ता तो मुझे भी बता देना ,
हो सके तो मेरे "उपदेश" उजाले कि तरह फैला देना.


- पूजा अनिल



रात बहोत बाकी दूर सहर तक चलना है,
अंधरों से उजालों तक का सफर करना है

तमाम परेशानियाँ, उलझनें खड़ी राहों में,
ज़िन्दगी को हर क़दम फूँक के धरना है

क़ाफिला तो चला वक़्त पे उस रोज़ भी,
हम ही तय न कर पाये रुकना या चलना है

तरंगे ले उड़ी फलक़ पे ख्यालों को जब भी,
पतंग कटे न सपनों की हमें संभलना है

अभी सर्द हवाओं ने उजाडे़ हैं बाग मेरे,
अव्वल तो ज़ख्मों को मुझे भरना है

खावाहिशों नें मेरी जानिब अपना रुख किया,
उनके बद इरादों को सिरे से बदलना है

सरहद की जंग छोटी जीस्त की बड़ी,
फौजी एक बार मरे हमें रोज़ ही मरना है

"रत्ती" हम तो मुसाफिर मज़िल से वाकिफ,
राह के ख़तरों से हमको नहीं डरना है

शब्दार्थ :-
सहर = सुबह, फलक़ = आकाश, जानिब = मेरी तरफ
बद = ख़राब, वाकिफ = परिचित, जीस्त = जीवन

- सुरिन्दर रत्ती



(1)

कहानी तो रोज
काकी सुनाती थी
माँ रात मे
न जाने कहाँ जाती थी
सुबह
कोई भूखा नही रहता था
आज भी
रात होने से डरती हूँ
काश !
इस डर के अंधेरों की सुबह हो

(2)

उसकी माँ ने
बसता और टिफिन पकडाया
मेरी माँ ने
झाडू कटका
उसे स्कूल बस मे चढाया
माँ ने मुझे
मालकिन का घर दिखलाया
जानती है वो
न गई तो पैसे कटेंगे
और हम भूखे रहेंगे
काश !
मै उजाले की
कोई किरण पकड पाती
तो मै भी
स्कूल बस मे चढ़ पाती

(3)

गिरा पुल
हजारों लोग मरे
रिश्वत ले नेता
पत्रकारों को बता रहा था
आतंक वादियों की
साजिश का अंदेशा जाता रहा था
दीवार पे लिखे
तम सो मा ज्योतिर्गमय के शब्द
इधर उधर हो रहे थे
फ़िर देखा तो लिखा था
ज्योति सो मा तमोग्म्य

(4)

बेटी होने की खुशी
अब सिर्फ़
वैश्याये मनाएँगी
समाज के ठेकेदारों के घर
बेटियाँ कोख मे
दफ़न कर दिजायेंगी
काश !
गर्भ का अन्धकार छोड़
वो दुनिया का उजाला देख पाती

- रचना श्रीवास्तव



अन्धेरे से उजाले की ओर
दूर से दिखती
एक नन्ही सी किरण
की तरफ बढते कदम
न जाने क्यो
बढते ही जाते है
क्या सोच कर ,बढते है.....?
शायद यही
कि पकड लेन्गे
उस छोटी सी किरण को
भर लेन्गे
अपने आँचल मे
समेट लेन्गे पहलु मे

जो कही
दूर से करती है
अपनी तरफ आने का इशारा
और
चल देते है
सभी उसी दिशा मे
आदि से
लेकर आधुनिक तक
बेपरदा से
परदा फिर नन्गेज तक
घास-फूस से
स्वादिष्ट पकवान तक
अज्ञानी से
विज्ञान तक
जन्गलो से
महलो तक
पत्थर की अग्नि से
अग्नि, पृथ्वी मिसाईल तक
असभ्य से
विदेशी सभ्यता अपनाने तक
समूह से
एक्ल रहने तक
वेदो से
आधुनिक शिक्षा तक
रामराज्य से
लोकतन्त्र तक
रजवाडो से
गुलामी ,फिर आजादी
और फिर स्वच्छन्दता तक
तीसरे
विनाशकारी युद्ध
की ओर अग्रसर होने तक
घास-फूस की
झोपडी से निकल कर
चाँद -तारो के पार पहुँचने तक
बन्दर से
आधुनिक इन्सान तक
वास्तविकता से
कृत्रिम तक
......

न जाने
कितने मील पत्थर तय कर डाले
इन बढते हुए कदमो ने
कितना
बदल डाला अपने-आप को
कहाँ से
कहाँ पहुँच गया मानव
लकीर के
फकीर बन कर हम भी तो
चल रहे है
उसी एक किरण की ओर
हर दिन
बढाते है कुछ कदम
अपने आगे देखकर
और
हमारे पीछे
भी तो लम्बी पन्क्ति है
जो
देख रही है
हमारे कदमो के निशान
मृगतृष्णा
की भान्ति बढ रहे है आगे
आँखो मे
पाले हुए अनन्त सपने
कही न कही
हो रहा है अनजाना बदलाव
कदम तो
अभी भी अन्धेरे मे ही है
परन्तु
दिख रहा है सामने उजाला
उजाला
अपने विचारो मे
उजाला
अपनी सोच मे
उजाला
अपनी दृष्टि मे
उजाला
अपने अधिकारो मे
उजाला
जागरूकता मे
और उजाला
भविष्य के सुन्दर सपनो मे
शायद
पहुँचेगे
कभी उस उजाले तक
यह बढते हुए कदम
अन्धकार को चीर कर

- सीमा सचदेव



हौसलों की कसर है बस लहरों से किनारे तक
रात भर का फासला है अँधेरे से उजाले तक

दूर बहुत लगती हो खुद में ही उलझी उलझी
हाथ भर का फासला है हमारे से तुम्हारे तक

मोहब्बत लेती है इम्तिहान कई कई मुश्किल
पहुँचती है तब जाकर अँखियों के इशारे तक

घुली हुई हो गंध हवन की पवन में जैसे
वैसी ही तू बसी हुई है घर के द्वारे द्वारे तक

कौन है जिसके आगे हमसब हरदम बेबस होते है
कैद नहीं ताकत वो कोई मस्जिद और दिवाले तक

घोटालों की शकलें बदलीं वही कहानी पर हर बार
कभी है मंदी कभी है तेजी हर्षद और हवाले तक

शब्दों की सीमा असीम है शब्द ब्रह्म है शाश्वत हैं
शब्द ज्ञान हैँ शब्द शक्ति हैं पोथी और रिसाले तक

- विवेक रंजन श्रीवास्तव



नहीं मिलेंगी मंजिलें, रहेंगें ग़र ज़ुदा-ज़ुदा,
हजार कोशिशें तू कर, नहीं मिलेगी पर फतह ।

संभाल अपने होश तू,
संभाल अपना जोश तू,
तू रात-दिन को एक कर,
अनेक को तू एक कर,
ये रात बीत जायेगी,
होगी फिर नई सुबह,
नहीं मिलेंगी मंजिलें, रहेंगें ग़र ज़ुदा-ज़ुदा,
हजार कोशिशें तू कर, नहीं मिलेगी पर फतह ।

बीत जायेगा समां,
रहेगा तू वहीं खड़ा,
जो कोशिशें करेगा तू,
कभी नहीं गिरेगा तू,
नहीं आग ग़र लगायेगा,
उठेगा कैसे फिर धुआँ ।
नहीं मिलेंगीं मंजिलें, रहेंगें ग़र ज़ुदा-ज़ुदा,
हजार कोशिशें तू कर, नहीं मिलेगी पर फतह ।

उठ, रौशनी बुला रही,
नई उमंग जगा रही,
अंधेरों में रहेगा,
तो करेगा कैसे जग नया,
जवानी है दौलत तेरी,
न इसको तू यूँ ही लुटा ।
नहीं मिलेंगीं मंजिलें, रहेंगें ग़र ज़ुदा-ज़ुदा,
हजार कोशिशें तू कर, नहीं मिलेगी पर फतह ।

- डा0 अनिल चड्डा



आकाश एक सागर
लहराते सितारे
झिलमिलाते लुभाते

जीवन एक सरिता
एकाकार बहते
अंधेरे और उजाले

कहां से ........
कहां तक .......

भेद ना जाना कोई
थाह ना पाया कोई
शाश्वत सत्य दोनों
सभ्यता दर सभ्यता

सृजन से शून्य
शून्य से सृजन तक
उजाले से अंधेरे
अंधेरे से उजाले तक

जिसने खोजा
छोर इनका
गया वो भंवर में
मंझधार हो गया
और जो डूबा
भूल विस्तार इनका
एक ही पल में वो
पार हो गया |

- विनय के जोशी



आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

15 कविताप्रेमियों का कहना है :

सीमा सचदेव का कहना है कि -

नहाता उजाले में कोई कल तो होगा
भरा उम्मीदों से कोई पल तो होगा ?

satish ji andhere se ujaale tak pahunchane ki ichcha achchi लगी
२.vipin aapne andhere aur ujaale ke beech tulna ke maadhayam se jeevan ki sachchaai bata di
3.B.raaghav ji aapki kavita vishayanukool lagi
4.महक...आपकी निम्न पंक्तियाँ अच्छी लगी
थोडिसी हिम्मत कर,जलाओ मुझे
धुआँ उठेगा,साँस चढ जाएगी
पर साथ थोड़ी रौशनी भी आएगी
वही तुम्हे राह दिखाएगी
अंधेरों से उजाले तक का
तुम्हारे अस्तित्व का सफ़र
तय करने के लिए....
५.shyaamsakha ji aapki gazal achchi lagi ,sabhi sheyar uttam bhaav vyakt karte hai
6.अमित जी आपने सही कहा:-
वो कहते है न:-
खुदी को कर बुलंद इतना
की हर तकदीर से पहले
खुदा बन्दे से यह पूछे
बता तेरी रजा क्या है
७.c.b.shreevaastav ji aapki gazal bahut achchi lagi ,bilkul vishyanukool
8. जीवन सागर.....

क्रांति के बाद ही,
होता सदा सुधार।
पतझर के बाद आये,
बसंत बहार।।
देवेन्द्र जी आपने सही चित्रण किया अंधेरे से उजाले तक के सफर का
९.पूजा जी आपकी निम्न पंक्तियाँ अच्छी लगी
चीर चीर हुआ ह्रदय, घायल हुए प्रयास,
गिरकर चोट खाकर भी मिटती नहीं है आस ,
तुम्हे दिखे कोई रास्ता तो मुझे भी बता देना ,
हो सके तो मेरे "उपदेश" उजाले कि तरह फैला देना.

१०.क़ाफिला तो चला वक़्त पे उस रोज़ भी,
हम ही तय न कर पाये रुकना या चलना है

तरंगे ले उड़ी फलक़ पे ख्यालों को जब भी,
पतंग कटे न सपनों की हमें संभलना है

अभी सर्द हवाओं ने उजाडे़ हैं बाग मेरे,
अव्वल तो ज़ख्मों को मुझे भरना है

खावाहिशों नें मेरी जानिब अपना रुख किया,
उनके बद इरादों को सिरे से बदलना है

सुरिन्द्र जी आपकी ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी |
११ rachana ji aapki kshinkaayen bahut achchi hoti hai ,kisi ek ki baat nahi karoongi ,sabhee me hi aapne andhere ki daldal se niklane ki ichcha jaahir ki hai ,achcha laga
12.हौसलों की कसर है बस लहरों से किनारे तक
रात भर का फासला है अँधेरे से उजाले तक

विवेक जी अच्छा लगा आपके अंधेरे से उजाले तक का सफर
१३.anil ji aapki geetnuma kavita achchi lagi
14. विनय जी आप की यह पंक्तियाँ अच्छी लगे
जिसने खोजा
छोर इनका
गया वो भंवर में
मंझधार हो गया
और जो डूबा
भूल विस्तार इनका
एक ही पल में वो
पार हो गया |

इतनी सारी कवितायेँ एक साथ पढ़कर अच्छा लगा लेकिन दुःख भी हुआ कि प्रतिभागियों कि संख्या आधी से भी कम रह गई इस बार.....सीमा सचदेव

मेनका का कहना है कि -

bishay bastu gambhir hai...aour sabki soch dhaaraa kaabile taarif.sabhi pratibhaagi ko badhaayee.

Anonymous का कहना है कि -

itne alag vishay par itni alag alag soch ki kavitayein padhkar bahut achha laga,ek se badhkar ek kavitayein hai,sabhi ko tahe dil se badhai.bas bura laa dekh kar ki pratibhagi kam ho gaye,khairhar andhere ke baad ujjala hota hi hai.

Anonymous का कहना है कि -

इस गंभीर विषय के चलते काव्य पल्लवन शायद एक अलग स्तर पर चला है. सहभाग और आयोजन मेरे विचार में प्रशंसा के पात्र रहा . मेरा अभिप्राय निम्नानुसार :


"अपने चमकीलेंपन पर इठलाते
उजालों को शायद नहीं मालूम
यह दुनिया अंधेरों ने
बहुत पहले से ही जीत रखी है।"
....बिल्कुल अलग सोच !

"अभी दुल्हन ने दस्तक दी, कि लो माँ ने बुला भेजा
कहा घूँघट की मेंहदी ने, प्रिये ! मुझको भुला के जा
बनें ना बेडियाँ आँसू, जो बहकर आये गालों तक... " ...बढ़िया लिखा है !

"पर साथ थोड़ी रौशनी भी आएगी
वही तुम्हे राह दिखाएगी
अंधेरों से उजाले तक का
तुम्हारे अस्तित्व का सफ़र
तय करने के लिए...." ......... दर्शन की झलक सुंदर है !

"आस थी जीने की अभी बाकी
रास्ते में मगर मसान भी था

कोई काम आया कब मुसीबत में
कहने को अपना खानदान भी था " ... दिलसे आह निकली और वाह भी !

" खो जाइये अंधेरों की
गर्त में इस तरह
कि टीमटीमाने लगें विचार
सितारों की तरह .......... " ....क्या बात है !

" बड़ी तब्दीलियाँ हुई हैं अंधेरे से उजाले तक
नया दिखता है सब कुछ हर घर से दिवाले तक

पुराने घर पुराने लोग उनकी पुरानी बातें
बदल गई सारी दुनियाँ उनकी थाली से प्याले तक " एक संक्रमण का सशक्त वर्णन,आपको अभिवादन !

"शशि हो न उदास,
गृहण के बाद आये पूनम की रात ।
हर रजनी के अंत में, आता सदा प्रभात
वक्त का कर इंतिजार।। " ...... सुंदर , यही विश्वास हमारे काम आ सकता है !

" पर अंधेरे कि चादर इतनी काली है छाई ,
कि लोगों को मेरी बात समझ नहीं आई ,
कह दिया मुझसे , "अपने उपदेश अपने पास रखो ,
हमारी अपनी दुनिया है , तुम अपनी दुनिया देखो", ..... बढ़िया लिखा है !


" क़ाफिला तो चला वक़्त पे उस रोज़ भी,
हम ही तय न कर पाये रुकना या चलना है

खावाहिशों नें मेरी जानिब अपना रुख किया,
उनके बद इरादों को सिरे से बदलना है " .... बहुत सुंदर !

" बेटी होने की खुशी
अब सिर्फ़
वैश्याये मनाएँगी
समाज के ठेकेदारों के घर
बेटियाँ कोख मे
दफ़न कर दिजायेंगी
काश !
गर्भ का अन्धकार छोड़
वो दुनिया का उजाला देख पाती....." ..इन पंक्तियों ने गहराई तक हिला दिया , क्या कहने हैं !


" एक नन्ही सी किरण
की तरफ बढते कदम
न जाने क्यो
बढते ही जाते है
क्या सोच कर ,बढते है.....? " .... एक एक पंक्ति लाजवाब !

"शब्दों की सीमा असीम है शब्द ब्रह्म है शाश्वत हैं
शब्द ज्ञान हैँ शब्द शक्ति हैं पोथी और रिसाले तक " .. एक अन्तिम सत्य , बेहतरीन शब्दोमें !

"तू रात-दिन को एक कर,
अनेक को तू एक कर,
ये रात बीत जायेगी,
होगी फिर नई सुबह..." .. सुंदर, उम्मीद पर ही दुनिया कायम है !

" जिसने खोजा
छोर इनका
गया वो भंवर में
मंझधार हो गया
और जो डूबा
भूल विस्तार इनका
एक ही पल में वो
पार हो गया | " ..... क्या कहने हैं , बधाई हो !
**********************
आप सभीको मेरी बधाईयाँ और शुभकामनाएं !

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

सभी कवितायें पसंद आईं। इस बार कविताओं की संख्या में कमी आई है। शायद इसका कारण विषय का गम्भीर होना भी रहा हो। पर जितनी कवितायें आईं अच्छा पढ़ने को मिला।

शोभा का कहना है कि -

काव्य पल्लवन का यह अंक बहुत ही अच्छा लगा। सभी कवियों ने अच्छा लिखा है।
सतीश वाघरे जी
हूँ मानता कि यह रस्ता नया है
सिवा हमारे न कोई गया है
पुकारे है मंझिल और जाना ही होगा
होनी है सुबह दिन को आना ही होगा !


विपिन
सच मानिये इस जीवन याञा में
अंधेरे ही हमें खुद के नजदीक लाते हैं
इन उजालों ने हमेशा हमें अपने आप से
दूर रखा है

राघव
बदल जाये ना, डर है, ये उजाला फिर अँधेरे में
कहीं फिर कैद ना हो जाये माँ, दरिन्दों के घेरे में
किसी बिधि टूटने की बात ना आये ख्यालों तक...
बड़ी मुश्किल से आये हैं, अँधेरों से उजालों तक...
बड़ी मुश्किल से आये हैं, अँधेरों से उजालों तक

श्याम सखा -
उम्र-भर साथ था निभाना जिन्हें
फ़सिला उनके दरमियान भी था

खुदकुशी "श्याम" कर ली क्यों तूने
तेरी किस्मत में आसमान भी था

अमित साहू
कुछ कीजिये ऐसा
कि दुनिया भी ये बोलें
" निराशा के अन्धेरें में
वो आशा की किरण था "
सूरज न सही हम
दीप की "लौ" तो हो लें ....

पी बी श्रीवास्तव-
जमाने की हवा से अब अछूता कोई नहीं दिखता
झलक दिखती नई रिश्तों में अब जीजा से साले तक

खनक पैसों की इतनी हुई सुहानी बिक रहा पानी
नहीं देते जगह अब ठहरने को धर्मशाले तक

शोभा का कहना है कि -

महक-
इधर उधर टुकूर -२ क्या देख रहे हो
मैं हूँ,तुम्हारे अंदर का चिराग
थोडिसी हिम्मत कर,जलाओ मुझे
धुआँ उठेगा,साँस चढ जाएगी
पर साथ थोड़ी रौशनी भी आएगी

देवेन्द्र मिश्रा-
शशि हो न उदास,
गृहण के बाद आये पूनम की रात ।
हर रजनी के अंत में, आता सदा प्रभात
वक्त का कर इंतिजार।।

पूजा अनिलपर अंधेरे कि चादर इतनी काली है छाई ,
कि लोगों को मेरी बात समझ नहीं आई ,
कह दिया मुझसे , "अपने उपदेश अपने पास रखो ,
हमारी अपनी दुनिया है , तुम अपनी दुनिया देखो

बहुत ही सुन्दर लिखा है।

सुरिन्दर रत्ती-
खावाहिशों नें मेरी जानिब अपना रुख किया,
उनके बद इरादों को सिरे से बदलना है

रचना-
बेटी होने की खुशी
अब सिर्फ़
वैश्याये मनाएँगी
समाज के ठेकेदारों के घर
बेटियाँ कोख मे
दफ़न कर दिजायेंगी
काश !
गर्भ का अन्धकार छोड़
वो दुनिया का उजाला देख पाती
अति सुन्दर

सीमा सचदेव-
जागरूकता मे
और उजाला
भविष्य के सुन्दर सपनो मे
शायद
पहुँचेगे
कभी उस उजाले तक
यह बढते हुए कदम
अन्धकार को चीर कर
आपकी कविता ने बहुत प्रभावित किया। बधाई

विवेक रंजन-
घोटालों की शकलें बदलीं वही कहानी पर हर बार
कभी है मंदी कभी है तेजी हर्षद और हवाले तक

डा० अनिल-
उठ, रौशनी बुला रही,
नई उमंग जगा रही,
अंधेरों में रहेगा,
तो करेगा कैसे जग नया,
जवानी है दौलत तेरी,

विनय जोशी-
सृजन से शून्य
शून्य से सृजन तक
उजाले से अंधेरे
अंधेरे से उजाले तक

सभी कवियों को हार्दिक बधाई

Anonymous का कहना है कि -

सभी कवि साथियों को जिन्होंने इसबार के काव्य पल्लवन को पुष्पित किया, दिल से ढेरों शुभकामनाएं,इसबार का विषय अपेक्षाकृत गंभीर था,शायद यही कारण है कि इतनी कम कवितायेँ आयीं पर जितनी भी आयीं बेहतरीन आयीं.
आलोक सिंह "साहिल"

सीमा सचदेव का कहना है कि -

कमल प्रीत जी सही कहा आपने
अँधेरा महज़ अँधेरा तो नहीं
उस के गर्भ में छिपी हैं अनेकों कल्पनाएं और सुखद अनुभूतियाँ

२. renu ji aapki kavita bahut achchi hai , lekin vishyanukool nahi lagi
3. सविता जी आपकी यह पंक्तियाँ अच्छी लगी

हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाना
कायरता है
बेकार प्रभु को कोसना
क्या यही मानवता है ?
अँधेरे से उजाले की ओर बढ़ने का
यही सरल उपाय है
स्वयं पर दृढ़ विश्वास
और अनुकम्पा प्रभु की
होती सदा सहाय है।
४.अंधेरो को अलविदा
कहती मेरी कविता ...
और बीच की पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी ...जब पाया अपना साया | हमारी यही सोच होनी चाहिए ...
कोई हो न हो साथ रहती है हरदम हमारे हमारी परछाई
५.तरूश्री शर्मा
आपकी कविता का हर शब्द बयान करते है अंधेरे से उजाले तक का सफर

Anonymous का कहना है कि -

धन्यवाद श्रीमान, इसबार का काव्य पल्लवन अधूरा लग रहा था.अब जाकर पूरा हुआ.
अच्छा लगा ने कविताओं को पढ़कर,सभी को बधाई
आलोक सिंह "साहिल"

सीमा सचदेव का कहना है कि -

रेनू जी आपको शायद मेरी प्रतिक्रिया का बुरा लगा ,मैंने वही कहा जो मैंने महसूस किया ,और आपकी कविता अच्छी तरह से पढ़ने के बाद ही टिप्पणी की ,ऐसे नही |मई अब भी यही कहूँगी कि आपकी कविता अच्छी है लेकिन जो विषय है "अंधेरे से उजाले तक " उसके अनुकूल मुझे नही लगी | यह टू अपनी -अपनी सोच है रेनू जी |इस विषय मी एक सफर तय करने कि बात है जो मुझे कही दिखाई नही दिया | उजाला ज्ञान का ही होता है , केवल रात का जाना और दिन का आना ही उजाला नही है ,यह बात मई अच्छी तरह समझती हूँ | मेरा आपसे कोई निजी विरोध नही है ,हमने केवल कविता पर टिप्पणी कि थी और आगे भी जैसा महसूस होगा वैसा ही कहेंगे | अगर मेरी कविता मे आपको कोई कमी लगे टू आप अपनी प्रतिक्रिया दे सकती है और मई उसे सार्थक लूंगी .......सीमा सचदेव

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

बड़ी जोर की भूख लगी थी
शाम को प्रीत-भोज है तो..
दोपहर को खाने की हड़ताल
जल्दी से पयजामा डाल
पहुँच गये शादी के पंडाल
पहुँचते पहुँचते थोड़ा सा
लेट हो गये हम
पता चला कि खाना
होने वाला है खतम
कहीं और ज्यादा न हो जायें लेट
फटाफट - फटाफट भर ली
रसगुल्लों से प्लेट
अचानक बिजली गुल
थेंक गोड....
टाइम रहते कर लिया काम
अपना तो भर ही जायेगा पेट
बेसब्री में एक एकांत की तरफ लपके
जनरेटर चला और हमने भी पलक झपके
ओह ! माई गोड़ !!!!
अपुन ही अकेला नही स्वार्थी है
कोई हमसे भी बड़ा महारथी है
बस मौका चाहिये...
अँधेरे से उजाले तक....

-मित्रो काव्य पल्लवन का अंक बहुत बढिया रहा एक से बढ़कर एक कविता..

किश्तों में आया उजाला मगर आया एक दम मस्त.. शायद वक्त कम रहा हो अथवा फैशन..

(दिल पर मत लो भाई)
बहुत बहुत बहुत बधाई
( दिल से )

Anonymous का कहना है कि -

इस बार काव्य पल्लवन का विषय गंभीर होने के साथ साथ अति विस्तृत भी है , सभी ने इस विषय को अपनी दृष्टि से देखा और अलग अलग तरह की कविताएँ लिखी हैं , एक ही विषय में कितने विचार समा सकते हैं, ये इस बार काव्य पल्लवन पढ़कर स्पष्ट होता है , सभी ने अपने विचारों को बहुत सुंदर रूप से प्रस्तुत किया है ,
सभी को भाग लेने के लिए बधाई

^^पूजा अनिल

Dr. Chandra Kumar Jain का कहना है कि -

बहुत अच्छी, उत्प्रेरक और सरगर्भित प्रस्तुति.
जैसे तमाम अंधेरों के बीच फैलता हुआ उजाला.
सृजन का .... समझ का .....विश्वास का उजाला.
=============================
मैं यही कहूँगा कि -
अंधेरा अगर तुमसे बड़ा है
तो समझ लो कि वह
तुम्हारे ही चूल्‍हे के दम पर खड़ा है.
=============================
शुभकामनाएँ
डा.चंद्रकुमार जैन

Unknown का कहना है कि -

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