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Tuesday, April 03, 2007

किस से करें उम्मीद


वो खुद ही, दासता की सांकल की, कडी निकले
जिन्हें आजादी के बिगुल बजाने थे

उनके हाथों में, खुदगर्जी की बेडियां थी लगी
जिन्हें आवाम की उम्मीदों के परचम लहराने थे

उनके दिलों को नहीं था औरों के दर्द का अहसास
जिन्हें अहम दिमागी फ़ैसले सुनाने थे

कोई लुट गया लोगों की भीड के बीचों बीच
फ़र्ज नपा ही नहीं, सबके अलग अलग पैमाने थे

खबरों की भीड में सिर्फ एक निठारी ही उछला
देश में न जाने ऐसे दरिन्दों के, कितने ठिकाने थे

जिसे कभी कंजक, कभी देवी समझ कर पूजा
भ्रूण में उसे मिटाने के, न जाने, क्या क्या बहाने थे

दब गया कोई उसी शहतीर के नीचे आकर
कुल(तमाम)बोझ आशियाने के जिसे उठाने थे

आज का समा देख कर यह लगता है
जो मिट गये फर्ज की खातिर,
या तो पागल थे, या कोई दीवाने थे

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

15 कविताप्रेमियों का कहना है :

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

मोहिन्दर जी
आपकी सोच का कायल हुआ जा सकता है।

"वो खुद ही, दासता की सांकल की, कडी निकले
जिन्हें आजादी के बिगुल बजाने थे"

यह एक कडुवा सच है।

"उनके दिलों को नहीं था औरों के दर्द का अहसास
जिन्हें अहम दिमागी फ़ैसले सुनाने थे"

"जिसे कभी कंजक, कभी देवी समझ कर पूजा
भ्रूण में उसे मिटाने के, न जाने, क्या क्या बहाने थे"

अंतिम बहुत प्रभावी है:

"आज का समा देख कर यह लगता है
जो मिट गये फर्ज की खातिर,
या तो पागल थे, या कोई दीवाने थे"
*** राजीव रंजन प्रसाद

SahityaShilpi का कहना है कि -

आज का समा देख कर यह लगता है
जो मिट गये फर्ज की खातिर,
या तो पागल थे, या कोई दीवाने थे

सचमुच मोहिन्दर जी, कभी कभी माहौल देखकर कुछ ऐसा ही एहसास होता है कि कहीं सचमुच ऐसे लोग दीवाने ही तो नहीं होते। बहुत अच्छा लिखा है आपने। बधाई।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

खबरों की भीड में सिर्फ एक निठारी ही उछला
देश में न जाने ऐसे दरिन्दों के, कितने ठिकाने थे

जिसे कभी कंजक, कभी देवी समझ कर पूजा
भ्रूण में उसे मिटाने के, न जाने, क्या क्या बहाने थे

मोहिन्दर जी आपने आज के सच को अपनी हर पंक्ति में लिखा है

Anonymous का कहना है कि -

सच्चाई को शब्दों में पिरोने का सुन्दर प्रयास...

कोई लुट गया लोगों की भीड के बीचों बीच
फ़र्ज नपा ही नहीं, सबके अलग अलग पैमाने थे

खबरों की भीड में सिर्फ एक निठारी ही उछला
देश में न जाने ऐसे दरिन्दों के, कितने ठिकाने थे


साधारण शब्दों का असाधारण प्रयोग, काश कवि ऐसा करने को बाध्य नहीं होता।

Laxmi का कहना है कि -

मोहिन्दर जी,

भारतीय जीवन के कटु सत्य को बहुत अच्छी तरह व्यक्त किया है। बधाई।

Gaurav Shukla का कहना है कि -

कटु सत्य का सटीक चित्रण
छू लेने वाली कविता है, हार्दिक बधाई

सस्नेह
गौरव

Pramendra Pratap Singh का कहना है कि -

मोहिन्‍दर जी बधाई,

आपने अपनी कविता मे समाज के अनछुऐ पहलुओं पर प्रकाश डाला है।

Anonymous का कहना है कि -

Mohinder Ji,

Aapki kavita mere hirday ko choo gayee... bahut abhut badhai ho.

Shashi Nigam

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

मोहिन्दर जी,

आपकी यह रचना पढ़कर यह कहा जा सकता है कि हर एक विषय को आपने कितनी बारिकी से समझा है। चाहे वो आज़ादी के बाद बचे तथाकथित नेताओं का खानदान हो, या ताज़ातरीन निठारी की आग।

सच में जो थोड़ा भी सोचता होगा उसे यही लगता है कि बहादुरी शायद किसी और दौर की बात रही होगी, अब तो इसकी कोई बात भी नहीं करता।

Anonymous का कहना है कि -

Mohinder ji Bahut khoob..mazaa aa gaya padh kar.Each and every Line is picking reality and beauty in itself

पंकज का कहना है कि -

जिसे कभी कंजक, कभी देवी समझ कर पूजा
भ्रूण में उसे मिटाने के, न जाने, क्या क्या बहाने थे.
मोहिन्दर जी, कई बार देश-परिवेश को देखकर हताशा ज़रूर होती है, लेकिन उसका सामना हमें अति-आशावादी बनकर करना होगा।

श्रद्धा जैन का कहना है कि -

aaj ka sama dekh kar lagta hai jo mar gaye wo deewane the

is ek soch ke liye aapke liye bus man wah wah kar utha mohinder ji
kya khoon andaaj main kaha hai aapne ye

aapko padhna bhaut achha lagaa

Anonymous का कहना है कि -

vaah badiya !

Ripudaman

विश्व दीपक का कहना है कि -

मोहिन्दर जी , आपने हमारे हिन्दोस्तां के बारे में कटु सत्य लिखा है।

खबरों की भीड में सिर्फ एक निठारी ही उछला
देश में न जाने ऐसे दरिन्दों के, कितने ठिकाने थे

वो खुद ही, दासता की सांकल की, कडी निकले
जिन्हें आजादी के बिगुल बजाने थे

जिसे कभी कंजक, कभी देवी समझ कर पूजा
भ्रूण में उसे मिटाने के, न जाने, क्या क्या बहाने थे

आपने अपनी रचना का अंत बड़े हीं प्रभावी ढंग से किया है-
आज का समा देख कर यह लगता है
जो मिट गये फर्ज की खातिर,
या तो पागल थे, या कोई दीवाने थे

बधाई स्वीकारें।

सुनीता शानू का कहना है कि -

मोहिन्दर जी सच बहुत ही कडवा होता है,...मगर आपने कितनी खूबसुरती से बयां किया है
"वो खुद ही, दासता की सांकल की, कडी निकले
जिन्हें आजादी के बिगुल बजाने थे"
ऒर ये भी कि निठारी जैसे ना जाने कितने कांड है जो नजर मे नही आ पाये,..
कुछ पन्क्तियाँ ओर भी सुन्दर लगी जैसे कि,...
"आज का समा देख कर यह लगता है
जो मिट गये फर्ज की खातिर,
या तो पागल थे, या कोई दीवाने थे"
वाह क्या बात है कविता में जान आ गई है,..लिखते रहिये....
सुनीता (शानू)

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