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Sunday, August 19, 2007

कील


कच्चे घरों में
कील नहीं रहती
दीवार ढ़ह जाती है
उसके द्वारा
पैरों पर खड़े होने का
प्रयत्न करने पर
.
.
.
पक्के घरों में
कील नहीं रहती
अपंग हो जाती है
मजबूती से
पैरों पर खड़े होने का
प्रयत्न करने पर
.
.
.
कील रहती है
अधपके घरों में
जहाँ आसानी से छिद जाती है दीवार
उसे विश्वास होता है
थोथ मिल ही जायेगी
कहीं ना कहीं...

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49 कविताप्रेमियों का कहना है :

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

अरे वाह!
क्या लिखा है!
मज़ा आ गया गिरिराज भाई।
कील रहती है
अधपके घरों में
जहाँ आसानी से छिद जाती है दीवार
उसे विश्वास होता है
थोथ मिल ही जायेगी
कहीं ना कहीं...

ऐसा ही लिखते रहें।

आलोक का कहना है कि -

(.)

आवश्यकता आविष्कार की जननी है! :)
ऊपर मेरा आविष्कार।
अच्छी कविता है।

इष्ट देव सांकृत्यायन का कहना है कि -

अच्छी कविता है.

RAVI KANT का कहना है कि -

गिरिराज जी,
बहुत सही!!शानदार!! ठीक कहा आपने-

कील रहती है
अधपके घरों में
जहाँ आसानी से छिद जाती है दीवार
उसे विश्वास होता है
थोथ मिल ही जायेगी
कहीं ना कहीं...

सुन्दर रचना के लिये बधाई।

ghughutibasuti का कहना है कि -

अच्छी कविता, अच्छा दर्शन । बीच का सा रास्ता अपनाता हुआ । तुम्हारी पीढ़ी की तरह ।
घुघूती बासूती

विपुल का कहना है कि -

कम शब्दों में अपनी बात को सफलतापूर्वक हम तक पहुँचा दिया आपने .
क्या ख़ूब कहा है !

"कील रहती है
अधपके घरों में
जहाँ आसानी से छिद जाती है दीवार
उसे विश्वास होता है
थोथ मिल ही जायेगी
कहीं ना कहीं... "

सार्थक रचना के लिए बधाई ..

Anonymous का कहना है कि -

बढ़िया है। जहां कील नहीं गड़ती है वहां खूंटी गाड़िये।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

कील रहती है
अधपके घरों में
जहाँ आसानी से छिद जाती है दीवार
उसे विश्वास होता है
थोथ मिल ही जायेगी
कहीं ना कहीं...


बहुत ही सुंदर रचना है..कुछ गहरी सी बात लिए हैं यह पंक्तियाँ...बधाई।

श्रवण सिंह का कहना है कि -

निःशब्द !
वाह ! वाह!
इतने कम शब्दो मे इतना गुढ़ दर्शन समेटे हुए है यह रचना, कि बस सोचने औए सोचने पर विवश हो जाता है पाठक।
बधाईयाँ कविराज जी।

श्रवण

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

सत-सैया के दोहरे ज्यों नवक के तीर,
देखत में छोटे लगें घाव करें गम्भीर .

याद आ रहीं हें ये पंक्तियां, कम शब्दों में बडी बात कह दी जोशी जी,
गहराई तक उतर गयी आपकी "कील"

बधाई...

Anonymous का कहना है कि -

बहुत गूढ़ बात कही है आपने कवि, अच्छी कविता! बधाई।

ऋषिकेश खोडके रुह का कहना है कि -

गूढ-गम्भीर कविता , कम शब्दों में जीवन का दर्शन वाकई एक सार्थक रचना |
मेरा अभीवादन स्विकार करें

Sanjeet Tripathi का कहना है कि -

बढ़िया!!
बीच का रास्ता तलाशने के हमारी आदिम प्रवृत्ति को ही प्रदर्शित करती हुई रचना!!

इसे पढ़ने के बाद एक कविता याद आ रही है
"बीच का रास्ता नही होता"
लेकिन यह याद नही आ रहा कि यह किसकी कविता है ना ही यह पूरी कविता याद आ रही है!!

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

गिरिराज जी,
बडा ही असाधारण विचार आपने साधारण से उदाहरण में पिरो दिया है। एक दार्शनिक का कथ्य है यह रचना।

कील रहती है
अधपके घरों में
जहाँ आसानी से छिद जाती है दीवार
उसे विश्वास होता है
थोथ मिल ही जायेगी
कहीं ना कहीं...

बहुत खूब!!!

*** राजीव रंजन प्रसाद

Anupama का कहना है कि -

Nice point.....never read even a line like tis before.....keep writing....keel adhpakke gharon me hi tikti hai....

विपिन चौहान "मन" का कहना है कि -

गिरिराज जी..
नमस्कार..
बहुत अच्छा लिखा है आप ने..
प्रयोग अपने आप में नवीनता लिये हुये है..
भाव के साथ दर्शन भी देखने को मिला है आप की रचना में
बहुत बहुत बधाई

आशीष "अंशुमाली" का कहना है कि -

क्‍या कहने थोथ के।

Unknown का कहना है कि -

badi hi saamanya si baat ko uthakar ek achhi kavita likhi hai mitra Giri ne. Yeh kavita ek nahi balki kayee saare priprekshya mein ek seekh de kar jaati hai.

ख्वाब है अफसाने हक़ीक़त के का कहना है कि -

बहुत खूब लिखा है, बन्धु ! कम शब्दो मे गहरी बात कही है ! एक सटीक रचना !
----दीपक गोगिया

शोभा का कहना है कि -

गिरिराज जी
बहुत ही सुन्दर एवं प्रतीकात्मक कविता लिखी है ।
यह कील बहुत ही गूढ़ अर्थ रखती है । आज यह कील
देश के अनेक स्थानो पर दिखाई दे रही है । हमारी
कमजोरी ही हमारे विनाश का कारण है । आपने बहुत ही
प्रभावशाली ढ़ंग से बात को रखा है । इतनी सशक्त
रचना के लिए बहुत-बहुत बधाई ।

Nikhil का कहना है कि -

गिरिराज जीं,
मेर बधाई भी स्वीकारें.....ऐसी कई रचनायें लिखे जाने की जरुरत है....आपकी कील ने कमाल कर दिया...आपकी सूक्ष्मदर्शिता ने प्रभावित किया........
निखिल

Alok Shankar का कहना है कि -

कील पर कविता है या कविता ही कोई कील है
छिद रही दीवार है या धँसी दिल में कील है

"कविराज" आप ऐसे ही नहीं कहे जाते

shruti का कहना है कि -

bahut khoob..
gehan vishay hai yeh bhi ki
कील रहती है
अधपके घरों में

Badhaii:)

डाॅ रामजी गिरि का कहना है कि -

'कील रहती है
अधपके घरों में
जहाँ आसानी से छिद जाती है दीवार'

खूबसूरत पंक्तियां हैं.

गीता पंडित का कहना है कि -

अच्छा दर्शन ....

अच्छी कविता ....

वाह!....

कविराज जी।

बधाई

राजीव तनेजा का कहना है कि -

कम शब्दों में गूढ बात कहने का आपका अंदाज़ सबसे निराला है . यूँ ही लिखते रहिए

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

बड़ी बात है। मैं अपना घर कभी अधपका नहीं छोड़ूँगा। काफ़ी दिनों के बाद लिखे लेकिन दुरुस्त।

anuradha srivastav का कहना है कि -

गिरीराज जी देर आयद दुरुस्त आयद ।बहुत बढिया लिखा।

Avanish Gautam का कहना है कि -

...यानी मध्यम मार्गी जगहो मे मजबूत विचारो के पनपने की गुंज़ाइश होती है...विचार के स्तर पर थोडा कम सहमत हू मै..हालाकि कविता का क्राफ्ट अच्छा लगा.

Archana Gangwar का कहना है कि -

giri raj ji.....

ek keel ke madhyam se aapne ghero ki majbooti ka anter darshaya hai........bahut khoob ....kachche gher kitne kachche hote hai ....ye ek keel bata sakti hai......

कच्चे घरों में
कील नहीं रहती
दीवार ढ़ह जाती है
उसके द्वारा
पैरों पर खड़े होने का
प्रयत्न करने पर

thanks for sharing
archana

Archana Gangwar का कहना है कि -

कच्चे घरों में
कील नहीं रहती
दीवार ढ़ह जाती है
उसके द्वारा
पैरों पर खड़े होने का
प्रयत्न करने पर
wah kachche gher kitne kachche hote hai ye keel ke madhyam se bataya hai........ghero ki majboti ka anter.......bahut khoob likha hai

archana

Dr. Seema Kumar का कहना है कि -

किसी चर्चा के समय एक माननीय लेखक-कवि ने मुझे कहा था कि आम तौर पर कविता / साहित्य की दुनिया में विवाद रहता है -
विषय-वस्तु अथवा कथ्य को महत्वपूर्ण मानने वालों में
और
शैली अथवा पद्वति को महत्वपूर्ण मानने वालों में ।

उनके हिसाब से विषय वस्तु या कथ्य, शैली या पद्वति से पहले आता है । उनका कहना था कि अगर कथ्य या विषय वस्तु नया हो और नई शैली अथवा पद्वति की माँग करता हो तो कवि तथाकथित आदर्श या प्रचलित लेखन शैली, पद्वति या मानक को भी खारिज या नामंजूर कर प्रभावी लिख सकता है ।

मैं भी उनसे सहमत हूँ और कविता के पीछे की सोच और विचारधारा से अधिक प्रभावित होती हूँ । आपकी यह कविता उनकी बात सही साबित करती है । आपके कथ्य में वह नई बात है जो शैली, पद्वति या किसी भी मानक को नज़रअंदाज़ करा दे । सीधी-सादी, कुछ पंक्तियों की यह कविता न सिर्फ बेहद प्रभावित करती है, बल्कि सोचने पर भी मजबूर करती है । कविता का शीर्षक भी उत्सुकता जगाता है.. कि यह किस विषय पर कविता है !

बधाई !! नई सोच और आज के समय की सोच भी लिखते रहें । मुझे लगता है हमें हिन्दी साहित्य में घिसे-पिटे विषय-वस्तुओं और पारंपरिक सोच से कुछ हटकर और आज के जीवन के संदर्भ में लिखने की आवश्यकता है । तभी पठक भी आज के साहित्य से अपना संबन्ध जोड़ पाएँगे । शुभकामनाऎ ।

- सीमा कुमार

Avanish Gautam का कहना है कि -

...इस कविता की दिक्कत यह है कि यह क्या कहना चाहती है यही स्पष्ट नही हो रहा है... अगर कोई विचार है भी तो मै समझ नही पा रहा हू... अन्य किसी पाठक ने और ना ही कवि ने इस पर कोई प्रकाश डाला है...कुल मिला कर यह क्राफ्ट का कमाल ही लग रही है..

Avanish Gautam का कहना है कि -

कृपया आप लोग मुझे वह गूढ बात बताने का कष्ट करे जो मै समझ नही पा रहा हू....

Shivanshu Baweja का कहना है कि -

bahut acha laga.... vichar pad kar lagta hai ki kahi apne ass pass ki bat ho......zindgi ke kaffi nazdik...or sochne ko mazbur karne wali..........

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

अवनीश जी,

कोई कविता यदि केवल बिम्ब में ही में कही जाये तो उसका महत्व या कथ्य कमजोर नहीं पडता। बिम्ब की सुन्दरता यही होती है कि वह पाठक को मनोनुकूल अर्थ तक भी पहुँचाती है।

आप यदि मानते हैं कि यह क्राफ्ट का कमाल लग रही है तो गलत नहीं मानते किंतु आपने सुन्दरता देख ली उसके मर्म तक सोचा नहीं शायद। गिरिराज की इस कविता में एक बिम्ब तीन परिस्थितियों को चित्रित कर रहा है और आप स्वतंत्र हैं इसे जीवन से जोडिये, व्यवस्था से जोडिये या कि नकार दीजिये।

*** राजीव रंजन प्रसाद

रंजू भाटिया का कहना है कि -

अवनीश जी कविता लिखने वाले के दिल के भावो से जुड़ी रहती है यह सच है
और पढने वाला पाठक इसको अपने दृष्टि कोण से पढ़ता है इस कविता में जो ख़ास
बात मुझे जिसे मैं समझ रही हूँ वो एक बीच के रास्ते को बात रही है की बहुत कमजोर होने से
दुनिया में बात नही बनती और अपनी बात यदि कवि के लफ्जों में समझे तो की अत्यधिक कठोरता भी
इंसान को पंगु बना देती है .इस में सबसे बेहतर रास्ता आज कल के वक्त के हिसाब से बीच का है की न हम ज्यादा कमजोर बने न ज्यादा कठोर तभी आज कल के वक्त के हिसाब से चल सकते हैं
और मेरी कल्पना ने एक जो अपना मतलब निकला है की जहाँ प्यार है विश्वास है वहाँ कोई भी बात आसानी से पूरी हो सकती है :)

Avanish Gautam का कहना है कि -

गिरिराज जी, आप क्या कहते है..

Avanish Gautam का कहना है कि -

मंजू जी मध्यम मार्ग की बात मै पहले भी कर चुका हू...लेकिन थोडा सोचने पर वह बात भी खारिज हो जाती है..और राजीव जी जहा तक बिम्बो का ताल्लुक है उन्हे तो विचार के परिप्रेक्क्ष मे खोजा जाता है...या बनया जाता है...दिक्कत यही है मै विचार तक नही पहुच पा रहा हू..और ना ही मुझे कोई गूढ दर्शन दिखाई दे रहा है..जैसा कि कई पाठक देख पा रहे है..

Avanish Gautam का कहना है कि -

रंजू जी माफ कीजिइगा आपका नाम गलती से मंजू टाइप हो गया.

Avanish Gautam का कहना है कि -

आईए इस कविता को ज़रा खोले..यह कविता कील के बारे मे बात करती है..अब इस कील को देखे इस कील के पैर है और यह उन पर खडा होने की कोशिश भी करती है..लेकिन अगर कील के पैर है तो दीवार क्यो? वह कही और भी जा सकती है. कील एक मज़बूत चीज है फिर वह अधपके घरो मे थोथ क्यो ढुढूती है? असल मे दीवारो के चक्कर मे असल चीज छूट गई है और वह है हथौडी जो इस कील की नियति तय करती है...क्योकि हथौडी एक ऐसी चीज है जो दीवार और कील दोनो की ज़िन्दगी तय करती है...मेरा मानना है कि अगर कविता हथौडी के चरित्र पर भी बात करती तो यह बडी कविता हो सकती थी..क्योकि असल बात वही छुपी है...उम्मीद है मेरी बात थोडी साफ हुई होगी.

गिरिराज जोशी का कहना है कि -

सभी साथियों और पाठकों का हार्दिक धन्यवाद!

@सीमा कुमारजी,

आपने संभवत: पहली बार इतनी बड़ी टिप्पणीं दी है, धन्यवाद! आप कविता/साहित्य की दुनिया में जिस विवाद की बाद कर रही है, मैं अनज़ान हूँ मगर फिर भी मैं आपकी बात को समझ पा रहा हूँ, एक बार पुन: धन्यवाद!


@ अवनिशजी,

आपने मेरी कविता को गहराई से समझने का प्रयास किया है, इसके लिये आपका हार्दिक आभार!

किसी भी रचनाकार को अत्यधिक खुशी होती है जब उसकी रचना को गहराई से समझने का प्रयास किया जाता है। इस कविता को लिखते समय जो विचार मेरे मस्तिष्क में थे, मैं उन्हें विस्तार से आपके समक्ष रखता हूँ -

मैने महसूस किया कि समाज में, सामाजिक व्यवस्था में, सोच में, व्यवसाय में... सब जगह मात्र एक लाईन खींच दी जाती है, और कोई उसके एक तरफ़ होता है तो कोई दूसरी तरफ़। जैसे - समाज के अंदर या बाहर, व्यवस्था के अनुकूल या प्रतिकूल, सोच के समर्थन में या असमर्थन में... मगर वास्तव में इनके अलावा भी एक खेमा और होता है जो दोनों तरफ़ होता भी है और नहीं भी, वास्तव में नुकसान इसी का होता है।

मैनें अपनी रचना में इसी तिसरे खेमें को स्पष्ट करने के लिये कील का सहारा लिया है। बाकि पाठक अपने हिसाब से मतलब निकालने को स्वतंत्र है।

उम्मीद करता हूँ कि मेरी बात कुछ स्पष्ट हुई होगी, मुझे इसमें कहीं भी हथोड़े के उपस्थित होने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।

सस्नेह,

गिरिराज जोशी "कविराज"

विश्व दीपक का कहना है कि -

आज कल हिन्द-युग्म की नियति ऎसी हो गई है कि किसी न किसी रचना पर बवाल मचता हीं रहता है। गिरि जी ने इत्ती छोटी कविता लिखी और उस पर भी बवाल कि समझ नहीं आया। [:)]

मुझे तो गिरि जी ने यह रचना पोस्ट करने से पहले हीं पढा दी थी तो मैं कुछ खास नहीं कहूँगा। बस यही कहूँगा कि संसार की सारी बातों को आपने एक छोटी-सी कील में समेट दिया है।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

Avanish Gautam का कहना है कि -

खुशी की बात है गिरिराज जी आपने अपनी बात को स्प्ष्ट किया. अब यही बात बहस को सही दिशा मे ले जाएगी...आज व्यस्तता के वजह से विमर्श नही दे पा रह हू... जल्दी ही बात शुरू होगी.

Dr. Seema Kumar का कहना है कि -

गिरिराज जी, इस विवाद की जानकारी मुझे भी नहीं थी पहले, पर कई बार मैंने भी ऐसा महसूस किया है पहले । और गौर करने पर यह विवाद वाली बात बहुत सच्ची लगी ।

कविता को लिखते समय जो विचार आपके मस्तिष्क में थे, उन्हें विस्तार से बता कर आपने पाठकों को आपकी नजर से समझ्ने में सहयोग किया है ।

वैसे हथोड़े के उपस्थित होने की आवश्यकता मुझे भी महसूस नहीं हुई । वैसे भी कवि कील के विषय में लिखता है या हथौड़े के विषय में, ये तो कवि के मनोभाव पर निर्भर करता है । सबकी अपनी अलग नज़र होती है .. इसीलिये तो हम सभी अलग अलग लिखते हैं न ।

और मेरी समझ से कविता बहस का विषय न हो तो अच्छा है क्योंकि वह भावों की अभिव्यक्ति है ... किसी राजनैतिक विषय या विवादास्पद विषय पर हो तो उसकी विषय-वस्तु पर बहस होना अलग बात है ।

अविनाष जी, अगर आपको 'कील' सही नही लगती या आप हथौडी़ पर लिखना चाहते हैं तो आप अपनी कविता लिख कर अभिव्यक्त कीजिये वह अधिक रचनात्मक कार्य होगा । उम्मीद है ऐसा कुछ एक नई कविता के रूम में पढ़ने को मिलेगा ।

- सीमा कुमार

Dr. Seema Kumar का कहना है कि -

सुधार : उम्मीद है ऐसा कुछ एक नई कविता के रूप में पढ़ने को मिलेगा ।

- सीमा कुमार

Pramendra Pratap Singh का कहना है कि -

बहुत सही!!शानदार!! ठीक कहा आपने, अच्छा दर्शन

ऐसा ही लिखते रहें।

Avanish Gautam का कहना है कि -

..कई दिनो से बाहर गया था. इसलिये छूटी बात पूरी नही हो पाई.

सबसे पहले सीमा कुमार जी... लिखे जाने के बाद कविता कवि से अलग हो जाती है. और उसे उसे अपने समय की प्रासागिकता के सन्दर्भ मे देखा जाता है. इसलिये विमर्श आवश्यक हो जाता है.
रही बात मेरे कविता लिख्नने की तो मै जवाबी कीर्तन करने वालो मे नही हू. यह कोई मुकाबला नही है. एक कविता को उसके उसके परिप्रेक्ष्य समझने की कोशिश है.

तन्हा कवि जी...तन्हाइयो से मसाईल हल नही हुआ करते, मसले हल करने के लिये बात करनी होती है.


अब मै गिरिराज जी से मुखातिब होता हू..
.सबसे पहले मै आपको उध्रत करता हू....

"मैने महसूस किया कि समाज में, सामाजिक व्यवस्था में, सोच में, व्यवसाय में... सब जगह मात्र एक लाईन खींच दी जाती है, और कोई उसके एक तरफ़ होता है तो कोई दूसरी तरफ़। जैसे - समाज के अंदर या बाहर, व्यवस्था के अनुकूल या प्रतिकूल, सोच के समर्थन में या असमर्थन में... मगर वास्तव में इनके अलावा भी एक खेमा और होता है जो दोनों तरफ़ होता भी है और नहीं भी, वास्तव में नुकसान इसी का होता है।

मैनें अपनी रचना में इसी तिसरे खेमें को स्पष्ट करने के लिये कील का सहारा लिया है। बाकि पाठक अपने हिसाब से मतलब निकालने को स्वतंत्र है।

उम्मीद करता हूँ कि मेरी बात कुछ स्पष्ट हुई होगी, मुझे इसमें कहीं भी हथोड़े के उपस्थित होने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।"

गिरिराज जी तीसरा खेमा तो आपने अधपकी दीवार से ही स्पष्ट कर दिया था. फिर यह कील कौन है.

अगर आप यह कहना चाह्ते है कि कील व्यवस्था मे मिसफिट एक व्यक्ति है. तो यह बात भी आपकी कविता ही खारिज़ करती है. क्योकी वह तीसरे खेमा जो कि अवसरवादी खेमा है, वहा वह अपने लिये थोथ ढूढ लेती...तो अब कील जो अपने नाम से मज़बूत लगती है यहा बहुत कमजोर पड जाती है...और यही पर उसकी की विडम्बना खुलती है... हथोडा इसी जगह से प्रसांगिक हो उठ्ता है. एक थोथ ढूढती हुई की कील इतनी बडी चीज कैसे बन जाती है? यह कम से कम मेरी समझ से बाहर की बात है.


गिरिराज जी आपसे उम्मीदे ज़्यादा है इसलिये कह गया एक बार फिर से सोचिएगा...


आप सभी का

अवनीश गौतम

विश्व दीपक का कहना है कि -

अवनीश जी, आप तो मुझसे नाराज हीं हो गए। मैं एक पाठक और एक कवि (जहाँ तक मुझे लगता है)होने के हिसाब से कहना चाहता था कि कील कविता खुद में हीं सारी बात कह देती है। अगर बाकी सारे कवि-गण इसे समझ गए हैं तो एक कवि होने के नाते आपको भी कोई परेशानि नहीं होनी चाहिए।
और रही बात तन्हाई की , तो नाम और तखल्लुस का मज़ाक उड़ा कर आपको कुछ मिलेगा नहीं, यह हथियार तो वैसे हम सब के पास है। अब मेरि इस बात का आपको बुरा लगा तो माफ कीजिए। आपकी हीं शब्दों में हम सब अभी कवि नहीं हुए हैं, अभी सीख रहे हैं( आपने काव्य-पल्लव्न की टिप्पणि में कहा है), इसलिए शायद अभी तक कवि का गुण मैं नहीं सीख पाया हूँ\ और इसीलिए शायद किसी बात को controversial बनाना भी नहीं सीख पाया हूँ।

बुरा लगे तो क्षमा कीजिएगा।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

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