फटाफट (25 नई पोस्ट):

Saturday, August 04, 2007

प्रतिध्वनि


किसी आश्वस्त घाटी में कभी आवाज यदि गूँजे
समझना यह तुम्हारी ही प्रतिध्वनि लौट कर आयी ।
यही आवाज जिसकी धार धड़कन तक पहुँचती है
उसी का वेग, पत्ते-सी हिली जो आज परछाईं ।

हमेशा याद के कोमल गलीचों पर धमकती है
किसी तलवार से है चीर देती रोज तनहाई
बड़े भारी कदम इसके, हृदय पर पड़ रहे हैं रे !
कि इसकी चोट से बह पीर आँखों से निकल आई ।

हमारी प्यास से क्यों होंठ धरती के फ़टे जाते
हमारी भूल की कैसे भला उसने सज़ा पाई ?
बड़ा निर्वात है रे आज भीतर के अहाते में !
बहा कर ले गये हो तुम न जाने कहाँ पुरवाई ।

बिछा कर नींद सोते थे हम अपनी आँख के नीचे
न जाने किरकिरी कैसी फ़िसलकर आँख में आई ,
तुम्हारे चैन के आगे कहीं पत्थर पड़ा होगा
तभी आवाज़ अपनी लौटकर वापस चली आई ।

- आलोक शंकर

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

18 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

वाह !

Anonymous का कहना है कि -

ग़ौरव जी की क्षणिका पर आप की टिप्पणियाँ और शैलेश जी की टिप्पणियाँ पढ़ने योग्य थी
उस चर्चा से बहुत ग्यान और अनुभव की प्राप्ति हुई .
इस प्रकार की चर्चाओ से संतुष्टि मिलती है
धन्यवाद
उन स्तरीय टिप्पणियों के पश्चात मै स्वयम ही उत्सुक था आपकी कोई रचना पढ़ने को,....और आपने आशाओ के अनुरूप बड़ी ही स्तरीय कविता लिखी है....
मै हमेशा से ही इस तरह की कविताएँ लिखता था परन्तु अभी जब नयी कविता का दौर चला है तो मुझे भी नयी कविताएँ लिखनी पड़ रही है....वैसे नयी कविता लेखन की भी अपनी शान है परंतु मै अभी भी इस तरह की लय और टुक युक्त कविता का बड़ा सा फॅन हूँ

गीता पंडित का कहना है कि -

bahut sundar..
man parasanna ho gayaa..

बड़े भारी कदम इसके, हृदय पर पड़ रहे हैं रे !
कि इसकी चोट से बह पीर आँखों से निकल आई ।

or ye bhee...

बड़ा निर्वात है रे आज भीतर के अहाते में !
बहा कर ले गये हो तुम न जाने कहाँ पुरवाई ।

ye bhee...

बिछा कर नींद सोते थे हम अपनी आँख के नीचे
न जाने किरकिरी कैसी फ़िसलकर आँख में आई ,
तुम्हारे चैन के आगे कहीं पत्थर पड़ा होगा
तभी आवाज़ अपनी लौटकर वापस चली आई ।

marm ko chhoo gayee...
alOk ji.....

AABHAAR
BADHAAEE

s-snah
gita p...

गीता पंडित का कहना है कि -

bahut sundar..
man parasanna ho gayaa..

बड़े भारी कदम इसके, हृदय पर पड़ रहे हैं रे !
कि इसकी चोट से बह पीर आँखों से निकल आई ।

or ye bhee...

बड़ा निर्वात है रे आज भीतर के अहाते में !
बहा कर ले गये हो तुम न जाने कहाँ पुरवाई ।

ye bhee...

बिछा कर नींद सोते थे हम अपनी आँख के नीचे
न जाने किरकिरी कैसी फ़िसलकर आँख में आई ,
तुम्हारे चैन के आगे कहीं पत्थर पड़ा होगा
तभी आवाज़ अपनी लौटकर वापस चली आई ।

marm ko chhoo gayee...
alOk ji.....

AABHAAR
BADHAAEE

s-snah
gita p...

RAVI KANT का कहना है कि -

आलोक जी,
क्या बात कही है आपने!सुन्दर प्रयोग है-
तुम्हारे चैन के आगे कहीं पत्थर पड़ा होगा
तभी आवाज़ अपनी लौटकर वापस चली आई

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

आलोक जी,
इस बार आपने मन पूरा मोह लिया। दिल से होकर गुजर गए आप।
बड़ा निर्वात है रे आज भीतर के अहाते में !
बहा कर ले गये हो तुम न जाने कहाँ पुरवाई।

बिछा कर नींद सोते थे हम अपनी आँख के नीचे
न जाने किरकिरी कैसी फ़िसलकर आँख में आई ,
तुम्हारे चैन के आगे कहीं पत्थर पड़ा होगा
तभी आवाज़ अपनी लौटकर वापस चली आई ।

अति उत्तम...

Medha P का कहना है कि -

बड़े भारी कदम इसके, हृदय पर पड़ रहे हैं रे,
कि इसकी चोट से बह पीर आँखों से निकल आई ।

आलोक जी, वाह वाह !

रंजू भाटिया का कहना है कि -

किसी आश्वस्त घाटी में कभी आवाज यदि गूँजे
समझना यह तुम्हारी ही प्रतिध्वनि लौट कर आयी ।

बहुत ही सुंदर ..

बड़े भारी कदम इसके, हृदय पर पड़ रहे हैं रे !
कि इसकी चोट से बह पीर आँखों से निकल आई ।

आलोक जी,बहुत ही सुंदर रचना है !!

Anonymous का कहना है कि -

हमारी प्यास से क्यों होंठ धरती के फ़टे जाते
हमारी भूल की कैसे भला उसने सज़ा पाई ?

आलोकजी, सचमुच आपकी चिंता विचारणीय है...

तुम्हारे चैन के आगे कहीं पत्थर पड़ा होगा
तभी आवाज़ अपनी लौटकर वापस चली आई ।

उत्कृष्ठ पंक्तियाँ! बधाई स्वीकार करें।

SahityaShilpi का कहना है कि -

आलोक जी!
कविता के बारे में कोई टिप्पणी करने की क्षमता मुझमें नहीं. बस इतना कहूँगा कि कविता मुझे बहुत पसंद आयी.

Gaurav Shukla का कहना है कि -

बहुत मोहक,
सुन्दर शब्द-चयन, अद्भुत प्रवाह, सुस्पष्ट बिम्ब
आनन्द आ गया आलोक जी, दिनकर जी का ओज दिखा

अनुपम काव्य, हार्दिक बधाई

सस्नेह
गौरव शुक्ल

Gaurav Shukla का कहना है कि -

"किसी आश्वस्त घाटी में कभी आवाज यदि गूँजे
समझना यह तुम्हारी ही प्रतिध्वनि लौट कर आयी ।"

"बड़े भारी कदम इसके, हृदय पर पड़ रहे हैं रे !
कि इसकी चोट से बह पीर आँखों से निकल आई ।"

क्या बात है आलोक जी!!!

"हमारी प्यास से क्यों होंठ धरती के फ़टे जाते"
"बिछा कर नींद सोते थे हम अपनी आँख के नीचे"

बहुत ही सुन्दर

Anupama का कहना है कि -

is kavita ka flow aacha hai...aache shabdon ka chayan kiya gaya hai....aakhri panktiyaan bahut pasand aai

हमेशा याद के कोमल गलीचों पर धमकती है
किसी तलवार से है चीर देती रोज तनहाई

हमारी प्यास से क्यों होंठ धरती के फ़टे जाते
हमारी भूल की कैसे भला उसने सज़ा पाई ?

बिछा कर नींद सोते थे हम अपनी आँख के नीचे
न जाने किरकिरी कैसी फ़िसलकर आँख में आई ,
तुम्हारे चैन के आगे कहीं पत्थर पड़ा होगा
तभी आवाज़ अपनी लौटकर वापस चली आई ।

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

आलोक जी,

आप कहते हैं कि आपकी रचनाओं की आलोचना करूँ। कहाँ से करूँ। इससे बढ़िया और क्या लिखा जायेगा! हाँ, आलोचना में स्पेशल डिग्री लेकर आऊँगा तब करूगा।

कुछ पंक्तियाँ चमत्कारिक हैं, मन को प्रफुल्लित करती हैं तथा आपकी कलात्मकता का परिचय देती हैं-

बड़ा निर्वात है रे आज भीतर के अहाते में !
बहा कर ले गये हो तुम न जाने कहाँ पुरवाई ।

बिछा कर नींद सोते थे हम अपनी आँख के नीचे
न जाने किरकिरी कैसी फ़िसलकर आँख में आई ,
तुम्हारे चैन के आगे कहीं पत्थर पड़ा होगा
तभी आवाज़ अपनी लौटकर वापस चली आई ।

ज़्यादा विशेष टिप्पणी तो शुक्रवार को ऋषभ जी ही देंगे।

विश्व दीपक का कहना है कि -

आलोक जी , आपकी रचनाओं को पढकर ऎसा लगता है , मानो दिनकर जी और गुप्त जी को पढ रहा हूँ । आप हमें उस दौर में वापस ले जाते हैं। आपकी लिखने की शैली , आपका शब्द-संयोजन , भावनाओं का मंथन , हर एक चीज मेरे लिए दुर्लभ हीं नहीं अलभ है।


बड़े भारी कदम इसके, हृदय पर पड़ रहे हैं रे !
कि इसकी चोट से बह पीर आँखों से निकल आई ।

इस छंद में "रे" के प्रयोग ने एक सम्मोहन पैदा कर दिया है।

बड़ा निर्वात है रे आज भीतर के अहाते में !
बहा कर ले गये हो तुम न जाने कहाँ पुरवाई ।

यहाँ भी वही बात है। हृदय में हिलोरे जनती ये पंक्तियाँ सुखद आभास देती हैं।

बिछा कर नींद सोते थे हम अपनी आँख के नीचे
न जाने किरकिरी कैसी फ़िसलकर आँख में आई ,
तुम्हारे चैन के आगे कहीं पत्थर पड़ा होगा
तभी आवाज़ अपनी लौटकर वापस चली आई ।

अंत करना तो कोई आपसे सीखे। बहुत खूब।
आपकी अगली रचना के इंतजार में-
विश्व दीपक 'तन्हा'

Admin का कहना है कि -

मुझे शब्द नहीं सूझ रहे कि कविता की तारीफ कैसे करूं। कविता इतनी धाराप्रवाह एवं रॊमाचंक है कि मैं एक ही सांस में इसे पढ गया फिर लगातार कई बार इसे पढा। बहुत खूब।

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

आलोक जी,
बेहद क्षमा प्रार्थी हूँ कि इतनी उत्कृष्ट रचना पर इतने विलंब से टिप्पणी कर रहा हूँ। अस्वस्थता को मेरा जायज बहाना मान कर क्षमा करेंगे।

आपकी क्षमताओं पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं है, जिस प्रकार आपकी भाषा पर पकड है वैसी ही बिम्बों पर पकड है। शैलेष जी आलोचना में स्पेशल डिग्री ले कर आयेंगे तब भी उन्हें मुश्किल हो जायेगी :)

कुछ बेहद गहरे बिम्ब जैसे "आवाज जिसकी धार धड़कन तक पहुँचती है","पत्ते-सी हिली जो आज परछाईं","याद के कोमल गलीचों","तलवार से है चीर देती रोज तनहाई", "आज भीतर के अहाते में"," बिछा कर नींद सोते थे हम अपनी आँख के नीचे"...

भावों और शब्दों पर समान पकड ही आपको समकालीन कवियों में "विषेश" का दर्जा देते हैं। आप हिन्दी कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं।

*** राजीव रंजन प्रसाद

अभिषेक सागर का कहना है कि -

बिछा कर नींद सोते थे हम अपनी आँख के नीचे
न जाने किरकिरी कैसी फ़िसलकर आँख में आई ,
तुम्हारे चैन के आगे कहीं पत्थर पड़ा होगा
तभी आवाज़ अपनी लौटकर वापस चली आई ।

गहराई है आपके शब्दों में, बहुत अच्छी कविता।

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)