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Sunday, September 16, 2007

नफ़रत


सिकुड़न जारी है...

इंसान
सिकुड़ रहा
भीतर ही भीतर

समय
ऐसे सिकुड़ा
बचा ही नहीं

परिवार
सिकुड़ गया
पति-पत्नि तक

प्रेम
जन्मता/मरता
मात्र बिस्तर पर

हरियाली?
मायने बदल गये
हरे-हरे नोट

धर्म
मन से निकला
‘मत’ नया घर

.
.
.

आश्चर्य!

सिकुड़न के इस दौर में,
फैलती ही जा रही
अकेली नफ़रत...

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35 कविताप्रेमियों का कहना है :

रंजू भाटिया का कहना है कि -

सिकुड़न के इस दौर में,
फैलती ही जा रही
अकेली नफ़रत...

बहुत ही सही और सुंदर लिखा है आपने कविराज जी

और भी जो बहुत पसंद आई ...

प्रेम
जन्मता/मरता
मात्र बिस्तर पर


बधाई

RAVI KANT का कहना है कि -

गिरिराज जी,
बहुत सही!!गागर मे सागर!!

आश्चर्य!
सिकुड़न के इस दौर में,
फैलती ही जा रही
अकेली नफ़रत...

सचमुच सोचनेवाली बात है ये।

Sanjeet Tripathi का कहना है कि -

ह्म्म, वाकई बहुत बढ़िया!!

शोभा का कहना है कि -

गिरिराज जी
बहुत ही बढ़िया क्षणिकाएँ लिखी हैं आपने । एक-एक पंक्ति अनेक वाक्यों का अर्थ समेटे हुए है ।
विशेष रूप से --
सिकुड़ रहा
भीतर ही भीतर
और --
हार्दिक बधाई ।

Vikash का कहना है कि -

'देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर' वाली उक्ति चरितार्थ कर दी. बधाई.

Unknown का कहना है कि -

गिरिराज जी,

आश्चर्य!
सिकुड़न के इस दौर में,
फैलती ही जा रही
अकेली नफ़रत...
....... बहुत सुंदर
एक-एक पंक्ति गंभीर मे अर्थ है
बधाई

गीता पंडित का कहना है कि -

कविराज जी

बहुत सुंदर ....

विशेष रूप से ....

आश्चर्य!
सिकुड़न के इस दौर में,
फैलती ही जा रही
अकेली नफ़रत...

गागर मे सागर

बधाई

Anupama का कहना है कि -

kya baat ki hai giri ji......mazaa aa gaya hai....kahene ka andaaz pasand aaya

आर्य मनु का कहना है कि -

सिकुड़न के इस दौर में,
फैलती ही जा रही
अकेली नफ़रत...

बेहद उम्दा रचना और इसके लिये कवि को साधुवाद .
कविराज की ये फार्म ही उनकी असली पहचान है ।
काव्य क्षैत्र की इन बुलन्दियों हेतु आपकी कविताओं की जितनी तारीफ की जाये, कम होगी ।

आर्य मनु, उदयपुर ।

विपिन चौहान "मन" का कहना है कि -

गिरिराज जी नमस्कार्
बहुत दिनों के बाद हिन्द युग्म पर आया हूँ इसलिये हिन्द युग्म से क्षमा चाहता हूँ
आप ने ये क्या लिखा है
इतने कम शब्द...................
वाह भाई आनन्द आ गया पढ कर
सच बहुत गहरी रचना की है आप ने
सच में दिल को छू लेने वाली रचना है
बधाई स्वीकार करें

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

वाह , उम्दा, सच, सटीक..यही शब्द मेरे दिमाग में आ रहे हैं

divya का कहना है कि -

'nafrat'......gambhir,choti awem satik rachna hai....bahut hi achcha likha hai aapne...
baghai...
[:)]

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

इन दिनों आपकी जो गंभीर रचनाएँ पढ़ने को मिली हैं, उसी की शृंखला में नफरत, बहुत विचारशील और तीक्ष्ण रचना है।

Unknown का कहना है कि -

Nice lines.. Hope for more poems on the sensitive topics like this...
Very good..'Kaviraj' ...

Avanish Gautam का कहना है कि -

अच्छी कविता.

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का कहना है कि -

जोशी जी, आपने हमारे युग के विरोधाभासों को बहुत सही जगहों से पकडा है. कविता को पढकर 'देखन में छोटे लगे घाव करे गम्भीर' याद आ गया. बहुत बहुत बधाई.
दुर्गाप्रसाद

गरिमा का कहना है कि -

आश्चर्य!

सिकुड़न के इस दौर में,
फैलती ही जा रही
अकेली नफ़रत...

गज़ब का लिखा है भईया...

सिकुड़न जारी है... क्यूँकि नफरत फैलती जा रही है
जिसमें दिन नफरत सिकुड़ने लगेगी, इंसान समय की धारा पर परिवार के प्रेम मे फैलने लगेगा, और फिर धर्म का वास्त्विक रूप, जीवन को खुशियाली/ हरियाली प्रदान करना बन जायेगा।

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

सुन्दर, मन-मंथन कराने वाली एक ऐसी रचना जो विवश कर दे सोचने पर कि आखिर क्यूँ ! क्यूँ रक्त-पोषित अमरबेल बनती जा रही है नफरत..

जोशी जी, बधाई..

"राज" का कहना है कि -

गिरिराज जी!!!
बहुत बढिया लिखा है आपने..

""सिकुड़न के इस दौर में,
फैलती ही जा रही
अकेली नफ़रत...""

सरल शब्दो का बहुत ही सही प्रयोग किया है और जीवन की जटिलताओ को बहुत ही सुन्दर तरीके से प्रस्तुत किया है.......

Sagar Chand Nahar का कहना है कि -

अन्तिम पंक्तियाँ बहुत पसन्द आई।
सुन्दर कविता।
बधाई।

Dr. sunita yadav का कहना है कि -

सिकूड़न..... के इस दौर मे ...फैलती जा रही अकेली नफ़रत..
फेफड़े मे डेरा डालती हवा की बेचैनियाओं को गर कोई
शब्दयित कर सके तो आप हो... बहुत ही अच्छी कविता है
सुनीता यादव

राहुल पाठक का कहना है कि -

सिकुड़न के इस दौर में,
फैलती ही जा रही
अकेली नफ़रत...
....
bahut hi sundar ban padi hai....
prem ki nayi vyakhya adbhut hai

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

सिकुड़न के इस दौर में,
फैलती ही जा रही
अकेली नफ़रत...

गिरिराज जी, आपके हालिया प्रयोग आश्चर्य जनक रहे हैं। इस कविता को ही लें..पढते हुए पहेली सी लगती है रचना किंतु अंतिम पंक्तियाँ स्तब्ध करती हैं। आप बधाई के पात्र हैं।

*** राजीव रंजन प्रसाद

शिवानी का कहना है कि -

giriraj ji, ismein koi shaq nahi ki aapka ye prayas behad uchch koti ka hai..ya yun kahiye ki ye rachna aapke kavya manthan ka ek behtareem moti hai....badhai...bhavishya mein bhi isi prakar ki kavitain pedhne ki asha rakhti hoon .thanx...

bhuvnesh sharma का कहना है कि -

आज के कबीर को उसके इस प्रशंषक की ओर से बधाई.

Gaurav Shukla का कहना है कि -

कविराज,
आश्चर्यजनक, स्तब्ध करने वाला गंभीर लेखन
आप कमाल कर रहे हैं,अपनी परिपक्व सोच को कविता का रूप दिया है आपने
आनन्द आ गया

सभी पंक्तियाँ मंत्रमुग्ध कर देने वाली हैं, और अंत सम्पूर्ण है

"आश्चर्य!

सिकुड़न के इस दौर में,
फैलती ही जा रही
अकेली नफ़रत"

वाह, अद्भुत

बहुत बहुत बधाई

सस्नेह
गौरव शुक्ल

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

गिरिराज,

यह अंदाज़ बढ़िया है। इसी प्राकर की शैली का खूब अभ्यास कीजिए

SahityaShilpi का कहना है कि -

गिरिराज जी!
इस रचना को पढ़ने के बाद आपके भावों की गहराई देख कर खुशी हुई. परंतु एक प्रश्न जो ज़हन में आया कि आखिर गद्य और काव्य में से इसे मैं किस श्रेणी में रखूँ? और अपनी अल्प-बुद्धि के चलते, अब तक नहीं समझ पाया हूँ.

rachana का कहना है कि -

मन कुछ उजब खडा उखडा हो,
तब सब कुछ सिकुडा लगता है!
बडी खुशी भी छोटी लगती,
छोटा गम, बडा लगता है!

rachana का कहना है कि -

पहली पन्क्ति इस प्रकार है--

जब मन कुछ उखडा उखडा हो,

Archana Gangwar का कहना है कि -

giriraj ji....
na jaane kitne lubhavne drashy roz media dikhati hai.....mobile ki satrangi duniya,aur insaan ki kamayabi ka aasmaan tak chaa jane ka.......lakin aapne jis taraf ishara kiya hai ki kis terah se aasmaan chone wala insaan sikur gaya hai........kabile tariff hai.
ek gahan soch...........

प्रेम
जन्मता/मरता
मात्र बिस्तर पर

aaj ke daur ki pyar ki sahi pahechaan hai ye....

archana

प्रेम
जन्मता/मरता
मात्र बिस्तर पर

विपुल का कहना है कि -

कुछ कहने को बचा ही नही इतनी देर से टिप्पणी कर रहा हूँ कि आपकी कविता के बारे में जो भी कहा जा सकता था सब कुछ ऊपर कहा जा चुका है क्षमा चाहूँगा
सचमुच बहुत ही अच्छी रचना है बधाई...

सिकुड़न के इस दौर में,
फैलती ही जा रही
अकेली नफ़रत...

Sajeev का कहना है कि -

अजय जी आप इसे किसी भी shreni में न रखें यह एक नई विधा है, इसे नाम भी गिरी जी को देने दीजिये, हमे तो बस इस बात से मतलब है की बात मे दम है, कविता के इस नए रूप पर और प्रयोग जारी रखियेगा गिरिजी , अब तक ३ कवितायेँ आपकी इस श्रेणी मे आ चुकी हैं श्याद बधाई

Mohinder56 का कहना है कि -

गिरीराज जी,

प्यार भी बहुत है जमाने में लेकिन लोग इसे अपने हिस्से की मलकियत समझ कर अपने तक ही मह्फ़ूज रखते हैं इसीलिये नफ़रत ज्यादा हावी नजर आती है.
सुन्दर रचना के लिये बधाई

विश्व दीपक का कहना है कि -

सिकुड़न के इस दौर में,
फैलती ही जा रही
अकेली नफ़रत...

दार्शनिक गिरि जी को मेरा प्रणाम! आपकी रचना बहुत हीं अच्छी लगी। देर से टिप्पणी कर रहा हूँ कि क्योंकि अपनी कविता पर टिप्पणी बटोरने में लगा था :)। अब जब लगा कि मेरी कविता पर टिप्पणी आने से रही, तो हार कर आपकी "नफरत" से प्रेम करने आ गया।

-विश्व दीपक 'तन्हा"

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