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Sunday, September 02, 2007

...इन दिनों


तेरी रुखसत का असर हैं इन दिनों,
दर्द मेरा हमसफ़र है इन दिनों....
मर भी जाऊं तो ना पलकों को भिंगा,
हादसों का ये शहर है इन दिनों....
अब खुदा तक भी दुआ जाती नही,
फासला कुछ इस कदर है इन दिनों.....
कश्तियों का रुख ना तूफा मोड़ दें,
साहिलों को यही डर है इन दिनों...
पाँव क्यों उसके ज़मी पर हो भला,
आदमी अब चांद पर है इन दिनों....
क्या कहू, मैं क्यों कही जाता नही,
खुद से खुद तक का सफ़र है इन दिनों......
हम कहॉ जाएँ,किधर जाएँ 'निखिल',
नाआशना हर रह्गुजर है इन दिनों.....

निखिल आनंद गिरि

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16 कविताप्रेमियों का कहना है :

RAVI KANT का कहना है कि -

निखिल जी,
काबिलेतारीफ़ गज़ल है। एक-एक शेर प्रशंसा के योग्य है। एक सम्पूर्ण रचना!बधाई।

विपिन चौहान "मन" का कहना है कि -

निखिल जी..
बहुत बहुत बधाई.
बहुत प्यारी गजल लिखी है..
ताल मेल काबिले तारीफ है..
कसाव थोडा सा कमजोर महसूस होता है..
लेकिन आप की कल्पना प्रशंशा की हक़दार है..
एक छोटी सी सलाह या निवेदन करना चाहूँगा..
कभी अपनी रचना से सन्तुष्ट मत हुआ कीजिये..
सुधार और निखार की गुन्जाइश हर बार बची रहनी चाहिये..
आप अपनी रचना को बार बार पढिये..
आप को स्वयं महसूस होगा कि लय कहीं कहीं पर थोडी सी अटपटी सी हो जाती है..
आभार

Sajeev का कहना है कि -

nikhil ji aap bahut unda likhte hain , samvedna par aapki kavita ke baad ek aur shandaar ghzal hai ye ek ek sher behat saleeke se prastut kiya hai aapne , sachmuch maza aaya

Nikhil का कहना है कि -

रविकांत जीं और सजीव जी, आपको रचना पसंद आयी..शुक्रिया.......विपिन जीं, मैंने ये कब कहा कि मैं अपनी रचनाओं से सन्तुष्ट हो जाया करता हूँ...अरे भाई, मैं तो अक्सर पढने के बाद भी सोचता हूँ कि शायद मुझे ये रचना अच्छी लगे मगर उतनी बेहतर है नहीं.....अगर मैं ही सन्तुष्ट हो गया तो गया काम से....लेकिन आप मेरे पाठक रहे हैं, सिर्फ ये कह देने भर से कि कसाव में कमी है या रचना बार-बार पढ़ें, बात नहीं बनेगी....अगर मेरी कमियाँ दूर नहीं हो पा रही हैं तो आप बतायें कि क्या बदलाव लाए जाएँ....होता ये है कि आप जब कुछ लिखते हैं तो फिर एक निष्पक्ष भाव से अपनी रचना पर नज़र नहीं रख सकते.....ये काम आप जैसे पाठकों का है......मुझ पर ध्यान देने के लिए बहुत धन्यवाद...........स्नेह बनाए रखें....

निखिल

Alok Shankar का कहना है कि -

निखिल , बहुत अच्छा लिखते हो , पर छोटा लिखते हो । लगता है एक घूँट पानि पिला कर किसी ने पानी छीन लिया ।
हादसों का ये शहर है इन दिनों....
अब खुदा तक भी दुआ जाती नही,
क्या कहू, मैं क्यों कही जाता नही,
खुद से खुद तक का सफ़र है इन दिनों...

बहुत सुंदर है

रंजू भाटिया का कहना है कि -

हादसों का ये शहर है इन दिनों....
अब खुदा तक भी दुआ जाती नही,
फासला कुछ इस कदर है इन दिनों...

बहुत ख़ूब और अच्छा लिखा है निखिल जी,
बधाई !!

मनीष वंदेमातरम् का कहना है कि -

निखिल जी
आपके दूसरे शेर की दोनो पंकतिया
अलग अलग है
हादसो के शहर मे ही पलके ज़्यादा भ्रीगती है

पाँव क्यों उसके ज़मी पर हो भला,
आदमी अब चांद पर है इन दिनों
ये पंक्ति असरदार है
सुंदर प्रयास

anuradha srivastav का कहना है कि -

निखिल बहुत खूब लिखा - तेरी रुखसत का असर हैं इन दिनों,
दर्द मेरा हमसफ़र है इन दिनों....
मर भी जाऊं तो ना पलकों को भिंगा,
हादसों का ये शहर है इन दिनों....
हर पंक्ति मुकम्मल है किस-किस का जिक्र करें
पर बिन कहे रहा जाता नहीं।
अच्छा लिखते हो

शोभा का कहना है कि -

प्रिय निखिल
इन दिनों--- बहुत ही भावपूर्ण गज़ल लिखी है । तुम इस विधा में खूब पारंगत हो रहे हो ।
खुद से खुद तक का सफ़र है इन दिनों......
तुमने एकदम सच कहा है । लेकिन मैं फिर यही कहूँगी कि निराशा को कविता में ही
निकाल देना । इसे जीवन में स्थान मत देना । सस्नेह

गरिमा का कहना है कि -

मर भी जाऊं तो ना पलकों को भिंगा,
हादसों का ये शहर है इन दिनों....

वाह! मै कुछ कहूँ :P

आईना हूँ भले ही बिखर जाऊँगा
मेरे हर टुकड़े पर अपना अक्स पायेगा
हादसो मे कही मेरा नाम जो सुनना
वादा कर तु मेरे सपनो को सजायेगा

Anonymous का कहना है कि -

ग़ज़ल पर मिल रही प्रतिक्रियाओं का शुक्रिया... आलोक जीं, कोशिश करुंगा कि रचना कि लम्बाई बड़ी करूं, मगर ये मेरा ध्येय नहीं हो सकता....
शोभा जीं, आपका स्नेह मिल रह है, अच्छा लगता है.....जीवन में निराशा को स्थान नहीं देने कि कोशिश में कुछ लिख जाता हूँ....शायद यही मेरी पूँजी है.....
गरिमा जीं को भी विशेष धन्यवाद....
और प्रतिक्रियाओं के इंतज़ार में

निखिल

SahityaShilpi का कहना है कि -

निखिल जी!
बहुत ही खूबसूरत रचना के लिये बधाई स्वीकारें.
अब खुदा तक भी दुआ जाती नही,
फासला कुछ इस कदर है इन दिनों
बहुत खूब!
कुछ दिन पहले आपने मेरे इस शेर की तारीफ़ की थी-
चाँद की ज़मीं पे भी इन्सान की पहुँच है
अब हद नहीं रही कोई आपस में बैर की

फिर अब मैं आपके इस शेर को क्या कहूँ:-
पाँव क्यों उसके ज़मी पर हो भला,
आदमी अब चांद पर है इन दिनों

पुनश्च: बधाई!

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

निखिल जी,
जितना आपको पढता जा रहा हूँ, उतना ही और प्रभावित हो रहा हूँ। हर एक शेर बेहतरीन है।

दर्द मेरा हमसफ़र है इन दिनों

कश्तियों का रुख ना तूफा मोड़ दें,
साहिलों को यही डर है इन दिनों...

पाँव क्यों उसके ज़मी पर हो भला,
आदमी अब चांद पर है इन दिनों....

बहुत बधाई आपको।

*** राजीव रंजन प्रसाद

गीता पंडित का कहना है कि -

निखिल जी..

बहुत प्यारी गजल है..

तेरी रुखसत का असर हैं इन दिनों,
दर्द मेरा हमसफ़र है इन दिनों....

क्या कहू, मैं क्यों कही जाता नही,
खुद से खुद तक का सफ़र है इन दिनों......

बहुत ख़ूब ......

बहुत बहुत बधाई

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

ग़ज़ल के हर एक शे'र को आपने बहुत सुंदरता से पिरोया है।

मनीष जी,

निखिल शायद यह कहना चाह रहे हैं कि चूँकि अब हादसों की आदत पड़ चुकी है नगरवासियों को इसलिए इससे किसी की आँखें नम होना कम ही अपेक्षित है।

शेष वो खुद कहेंगे।

pankaj ramendu का कहना है कि -

्या कहू, मैं क्यों कही जाता नही,
खुद से खुद तक का सफ़र है इन दिनों....

बहुत अच्छा शेर है.. कई बार ग़ज़ल में कोई कोई शेर बहुत सार्थक बन पड़ते हैं. इस शेर में वो दर्शन है जिसकी ग़ज़ल को तलाश थी..

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