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Friday, October 19, 2007

अवकाश ( ब्रेक )


सुब्हा की गलियों में
अँधेरा है बहुत,
अभी आँखों को मूंदे रहो,
घडी का अलार्म जगाये अगर,
थपकी मार कर चुप कर दो,
काला सूरज,
आसमान पर लटक तो गया होगा,
बाहर शोर सुनता हूँ मैं,
इंसानों की, मशीनों की,
आज खिड़की के परदे मत हटाओ ,
आज पड़े रहने दो,
दरवाज़े पर ही,
बासी ख़बरों से सने अखबार को,
किसे चाहिऐ ये सुब्हा , ये सूरज,
फिर वही धूप, वही साये,
वही भीड़, वही चेहरे,
वही सफर , वही मंजिल,
वही इश्तेहारों से भरा ये शहर,
वही अंधी दौड़ लगाती,
फिर भी थमी- ठहरी सी,
रोजमर्र्रा की ये जिन्दगी ।

नही, आज नही,
आज इसी कमरे में
पड़े रहने दो मुझे,
अपनी ही बाँहों में,
"हम" अतीत की गलियों में घूमेंगे,
गुजरे बीते मौसमों का सुराग ढ़ूढेगे,
कुछ रूठे रूठे,
उजड़े बिछड़े ,
सपनों को भी बुलवा लेंगें,
मुझे यकीन है,
कुछ तो जिंदा होंगे जरूर ।

खींच कर कुछ पल को इन मरी हुई सांसों से,
जिंदा कर लूंगा फिर, जिन्दगी को मैं ॥

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13 कविताप्रेमियों का कहना है :

Avanish Gautam का कहना है कि -

सजीव जी अच्छी कविता है.


"इंसानों की, मशीनों की," इस पंक्ति में लिंग दोष रह गया है यह इंसानों का, मशीनों का होना चाहिये था.

बढिया! बधाई!

अवनीश

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

सजीव जी,

आज इसी कमरे में
पड़े रहने दो मुझे,
अपनी ही बाँहों में,
"हम" अतीत की गलियों में घूमेंगे,
गुजरे बीते मौसमों का सुराग ढ़ूढेगे,
कुछ रूठे रूठे,
उजड़े बिछड़े ,
सपनों को भी बुलवा लेंगें,
मुझे यकीन है,
कुछ तो जिंदा होंगे जरूर ।

खींच कर कुछ पल को इन मरी हुई सांसों से,
जिंदा कर लूंगा फिर, जिन्दगी को मैं ॥

छू जाने वाली कविता। आप एसा कुछ लिख जाते हैं जो देर तक मथता है। खास कर यह पंक्ति "सपनों को भी बुलवा लेंगें,मुझे यकीन है,कुछ तो जिंदा होंगे जरूर"।

आपकी रचनायें ही एसी होती हैं कि पाठक उसमें स्वयं को तलाश लेता है।

*** राजीव रंजन प्रसाद

शोभा का कहना है कि -

सजीव जी
बहुत ही प्यारी कविता लिखी है । सच में कभी-कभी ऐसा ही मन करता है । पर ज़िन्दगी में अतीत कभी भी
लौट कर नहीं आता । आनन्द आ गया पढ़कर ।
नही, आज नही,
आज इसी कमरे में
पड़े रहने दो मुझे,
अपनी ही बाँहों में,
"हम" अतीत की गलियों में घूमेंगे,
गुजरे बीते मौसमों का सुराग ढ़ूढेगे,
कुछ रूठे रूठे,
उजड़े बिछड़े ,
सपनों को भी बुलवा लेंगें,
मुझे यकीन है,
कुछ तो जिंदा होंगे जरूर ।
ज़िन्दगी तो यूँ ही चलेगी -- । कुछ नहीं बदलेगा । एक प्यारी सी कल्पना के लिए बधाई ।

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

अच्छा है.
लेकिन "काला सुरज " का मतलब नही समझा ?

अवनीश

रंजू भाटिया का कहना है कि -

"हम" अतीत की गलियों में घूमेंगे,
गुजरे बीते मौसमों का सुराग ढ़ूढेगे,
कुछ रूठे रूठे,
उजड़े बिछड़े ,
सपनों को भी बुलवा लेंगें,

बहुत बहुत सुंदर भाव से सजाया है आपने इस रचना को सजीव जी...
बधाई सुंदर रचना के लिए !!

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

संजीव जी,

बहुत ही गूढ़ कविता है आपकी, अतीत को याद कराती आधुनिक परिवेश में ढूँढती उन सपनों को जो संजोये थे अंतर्मन में कभी..

भावुक व गहरी मन्थन रचना

बधाई

गीता पंडित का कहना है कि -

सजीव जी !

आपकी हर कविता ने अभिभूत किया है मुझे.....

कुछ रूठे रूठे,
उजड़े बिछड़े ,
सपनों को भी बुलवा लेंगें,
मुझे यकीन है,
कुछ तो जिंदा होंगे जरूर ।

खींच कर कुछ पल को इन मरी हुई सांसों से,
जिंदा कर लूंगा फिर, जिन्दगी को मैं ॥


एक अच्छी प्रस्तुति....वर्तमान से सन्तुष्ट नहीं होता मन ...बारम्बार अतीत में ही डूबता है...उन बातों के लियें...... जो अपूर्ण रह गयीं......


आभार

बधाई

स-स्नेह
गीता पंडित

shivani का कहना है कि -

सजीव जी, आपकी लेखनी को नमन करने को दिल करता है ! आपने रोज़मर्रा की जिन्दगी की सत्यता को बहुत ही प्रभावपूर्ण तरीके से शब्दों में ढाला है !
आज पड़े रहने दो
दरवाज़े पर ही
बासी ख़बरों से सने अखबार को
किसे चाहिए ये सुबह, ये सूरज
फिर वही धूप वही साए
वही भीड़ ,वही चेहरे ,
वही सफर वही मंजिल ,
वही इश्थारों से भरा शहर
वही अंधी दौड़ लगाती
फिर भी थमी ठहरी सी
रोज़मर्रा की ये जिंदगी !
वर्तमान जिंदगी का वास्तविक चित्रण इन पंक्तियों में देखने को मिलता है !बेहद विचारशील और सटीक रचना ! आज के हर इंसान के अंतर्मन की बात आपने कविता के माध्यम से कह डाली ! जीवन के यथार्थ को दर्शाती इस कविता के लिए अनेकानेक शुभकामनाएं .........!

Mohinder56 का कहना है कि -

सजीव जी,
सुन्दर रचना है..

समझो हमें वहीं ही, दिल हो जहां हमारा

विपुल का कहना है कि -

मर्म को भेदती कविता !
वाह सजीव जी ..कितना सजीव चित्रण किया है .. देर तक सोचना पड़ा..
सुंदर कविता के लिए बधाई ..

Manoj Mishra का कहना है कि -

सजीव भाई
अपनी सी बात लगती है ऐसा लगता है की यह मेरे दिल की बात लिखी है

विश्व दीपक का कहना है कि -

सजीव जी,
देर से टिप्पणी करने के लिए क्षमा चाहता हूँ।घर गया था।


काला सूरज,
आसमान पर लटक तो गया होगा,

पड़े रहने दो मुझे,
अपनी ही बाँहों में,
"हम" अतीत की गलियों में घूमेंगे,
गुजरे बीते मौसमों का सुराग ढ़ूढेगे,
कुछ रूठे रूठे,
उजड़े बिछड़े ,
सपनों को भी बुलवा लेंगें,
मुझे यकीन है,
कुछ तो जिंदा होंगे जरूर ।

बहुत हीं सुंदर भाव और उससे भी सुंदर प्रस्तुतीकरण। आप हर बार कुछ न कुछ नया सीखा जाते हैं। इसके लिए शुक्रिया और कविता के लिए बधाई।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

caiyan का कहना है कि -

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