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Friday, December 21, 2007

कैसा देश है मेरा


जब किसी कद्दू या तोरई या लौकी के फूल को
राष्ट्रीय फूल नहीं बनाया गया
तभी यह तय हो गया था कि कमल का फूल ही
राष्ट्रीय फूल होगा

जैसे कोई गौरइया या मुर्गी या कौआ
नहीं बन सकता राष्ट्रीय पक्षी

जब किसी बैल या कुत्ते या हिरन या खरगोश
को नहीं बनाया जा सकता है राष्ट्रीय पशु

तभी यह तय हो गया था कि कौन से होंगे
हमारे राष्ट्रीय प्रतीक जिनसे चीन्हा जाएगा हमें

यह कैसा देश है मेरा जिससे प्यार करता हूँ मैं
जिसमें मेरे और मेरी जैसी चीजों के
शामिल होने को माना ही नहीं जाता.

अवनीश गौतम

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23 कविताप्रेमियों का कहना है :

अनिल रघुराज का कहना है कि -

अवनीश गौतम जी, गहरी विडंबना को सामने लानेवाली सुंदर-सी, प्यारी-सी कविता है। जो बात बहुत बड़े लेख में कही जाती, उसे आपने चंद लाइनों में व्यक्त कर दिया।
गलती बस यह है कि पोस्ट में कविता दो बार चिपक गई है आधे से। बीच में जब किसी कद्दू.. से फिर शुरू हो जाती है।

Anonymous का कहना है कि -

ह्म्म्म्म !!!!! ऐसा तो नही है भाई |
सब के मन का सब जगह नही हो सकता |
अपना देश तो सर्वोताम है.
रचना के मध्यम से बात कहना बहुत कुशल प्रयास है.
बधाई

अवनेश तिवारी

रंजू भाटिया का कहना है कि -

अवनीश जी यदि तोरई या लौकी के फूल को
राष्ट्रीय फूल बना देते तो किसी को इस पर भी आपत्ति होती :) सो जो प्रतीक बना है जिसके लिए वह अच्छा ही चुना गया है ,
वैसे आपकी कविता अच्छी और विचार योग्य लगी ...:)

Sajeev का कहना है कि -

अविनाश जी, रंजना जी से सहमत हूँ मैं भी, कविता को शयद ठीक से समझ नही पाया.... अगर कमल का कोई स्थान है तो कद्दू लौकी का भी अपना महत्त्व है भाई ...

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

यह कैसा देश है मेरा जिससे प्यार करता हूँ मैं
जिसमें मेरे और मेरी जैसी चीजों के
शामिल होने को माना ही नहीं जाता.

बहुत अच्छे अवनीश जी। कविता ने अन्दर तक प्रभाव छोड़ा।

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

अवनीश जी
पहले पहले तो मुझे भी आशय समझ नही आया
परंतु पुनः पढ़ा तो कुछ समझ आया

वैसे प्रतीक तो किसी एक को ही बनाया जा सकता है .. मन में खिन्नता की कोइ बात नही है..
लोकी तोरई का फूल भी प्रतीक होता तो कोई बात नही थी परंतु समयानुकूल एवं कुछ विशेष बातो को ध्यान में रखकर ही किसी को प्रतीक बनाया जाता है..
गहनता से सोचें भले ही राष्ट्रीय पशु हो पक्षी हो या फूल सभी में कुछ न कुछ छुपा है
समकालीन बुद्धिजीवियों द्वारा ही ये सब निर्धारित हुआ है..

- प्रश्न रचना के लिये बधाई स्वीकारें

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

सब लोग लौकी और कद्दू पर ही थम गए....असली अर्थ कुछ और था शायद....

शोभा का कहना है कि -

अवनीश जी
मुझे समझ नहीं आया आप इस कविता के माध्यम से क्या कहना चाह रहे हैं . इस देश मैं सबको मान्यता है निराश न हों.

Anonymous का कहना है कि -

अवनीश जी जिन सहज उपमानों के प्रयोग के द्वारा आपने रचना करी वो बहुत अच्छी लगी. कुछ हमारे कवि मित्र अपनी असहमति, सहमति जाता रहे हैं तो ये उनका बेहद ही निजी अनुभव हो सकता है, एक वर्ग या किसी भीड़ का नहीं.
बहुत बहुत साधुवाद
आलोक सिंह "साहिल"

Anonymous का कहना है कि -

अवनीश जी जिन सहज उपमानों के प्रयोग के द्वारा आपने रचना करी वो बहुत अच्छी लगी. कुछ हमारे कवि मित्र अपनी असहमति, सहमति जाता रहे हैं तो ये उनका बेहद ही निजी अनुभव हो सकता है, एक वर्ग या किसी भीड़ का नहीं.
बहुत बहुत साधुवाद
आलोक सिंह "साहिल"

RAVI KANT का कहना है कि -

मुझे काव्य का ढंग पसंद आया। लौकी और तोरई के शाब्दिक अर्थ पर ही अटक जाना कविता के मूल में पहुँचने में बाधक है। इनके माध्यम से कवि ने जो कहना चाहा है वो कविता के अंत में निष्कर्ष के रूप में उभरकर सामने आया है-
जिसमें मेरे और मेरी जैसी चीजों के
शामिल होने को माना ही नहीं जाता

Alpana Verma का कहना है कि -

एक नए तरीके से अपने भावों को कविता को प्रस्तुत करना ख़ास दिखा.
सीधी सी लगने वाली मगर बहुत गहरी इस कविता का सार इन पंक्तियों में है

'जिसमें मेरे और मेरी जैसी चीजों के
शामिल होने को माना ही नहीं जाता'

बहुत अच्छा लिखा है.

vipin chauhan का कहना है कि -

मुझे इस रचना में ख़ास मज़ा नहीं आया
किस बात की खीज को दर्शाने का प्रयास किया गया है ज़रा स्पष्ट करे
मुझे नहीं महसूस हुआ की कविता ने किसी भी प्रकार की छाप मुझ पर छोडी हो

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

कविता का आशय स्पष्ट है.. परंतु सिर्फ 2 पंक्तियाँ रहीम दास जी की कहना चाहुँगा यहाँ..

रहिमन देख बडेन को, लघु ना दीजिये डारि
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तलवारि

सबकी अहमियत है सबका महत्व है..

नींव की ईंट जो किसी को दिखाई नहीं देती सबसे ज्यादा भार वहन करती है..कोई नही देखता उसको.. जो सबसे ज्यादा अहम है..

Avanish Gautam का कहना है कि -

अनिल जी, गौरव जी, रविकांत जी, अल्पना वर्मा जी, और साहिल जी आप सभी का आभार कि आपने कविता को पसंद किया और उसका मर्म समझा..

अवनीश तिवारी जी, रंजू जी, सजीव जी, भूपेन्द्र राघव जी, शोभा जी, आप सभी का भी कविता पढने के लिये धन्यवाद. आप लोगों से मै सिर्फ इतना ही कहना चाहूँगा कि यह कविता हमारे देश के उन लोगों और चीजों के बारे में बात करती है जिन्हे मुख्यधारा से काट कर हाशिये पर फेंक दिया गया है..जबकि वही लोग सबसे ज्यादा ज़रूरी हैं.

धन्यवाद!

Avanish Gautam का कहना है कि -

भूपेन्द्र राघव जी क्षमा कीजियेगा आप मूल अर्थ तक पहुँचे हैं.

Avanish Gautam का कहना है कि -

और जो लोग यह कह रहे हैं कि देश में सबको मान्यता है मै उनकी इस बात से सहमत नहीं हूँ. किनको कितनी मान्यता है किनको कितनी बराबरी और किनको कितनी आज़ादी हासिल है यह बात कोई छुपी बात नहीं हैं यह बात सिर्फ व्यवस्था तक सीमित नहीं हैं यह हमारी सामाजिक व्यवस्था में भी उतनी ही पैवस्त है. जो वंचित है अपनी तकलीफ वही बयान कर सकते हैं. जैसे कि स्त्रियाँ, दलित, मज़दूर, गरीब, आदिवासी, आदि आदि.

vipin chauhan का कहना है कि -

अवनीश जी मैं आप की बात का समर्थन नहीं करूँगा
क्युकी यह समाज है और समाज में स्त्रियों , दलित , मजदूरों , गरीबों और आदिवासियों की भी आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता !
यदि समाज में ये सब नहीं होंगे तो इनके स्तर का कार्य आप किस को सौपेंगे ?
दूसरी बात स्त्रियों की जिस दशा के लिए आप चिंतित हैं उस दिशा में पहले से बहुत ज्यादा सुधार हुआ है आप देखा लीजिये की मेरे प्रदेश और केन्द्र में सत्ता स्त्रियों के हाथो में है
और अगर व्यवस्था की बात की जाए तो ऐसी कोई भी व्यवस्था नहीं हो सकती जो एक मजदूर को राजा और एक गरीब को अमीर बना सके !
कुछ बाते बहुत आवश्यक होती हैं जिन से समाज का निर्धारण होता है
वो वैसी ही रहे तो ज्यादा अच्छा है
मेरी बातो को अन्यथा मत लीजियेगा
ये मेरे विचार हैं आप इनसे सहमत भी हो सकते हैं और असहमत भी
विपिन चौहान "मन"

Dr. sunita yadav का कहना है कि -

उत्कृष्ट भाव ,सुंदर अभियक्ति ....
सुनीता यादव

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

विपिन जी,
एक मायावती के मुख्यमंत्री बनने से सत्ता स्त्रियों के हाथ में नहीं चली जाती। घरों में जाकर डॉक्टर, इंजीनियर बनी लड़कियों को भी देखिए कि उन्हें भी अपना स्थान बनाने और मान्यता पाने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है!
आप कह रहे हैं कि समाज में सबकी आवश्यकता है। हाँ है, लेकिन जातियों, वर्गों की नहीं है।
मजदूर को राजा बनाने को कौन कह रहा है..आप मजदूर को भी आदमी बनाइए और राजा को भी..सबको इस देश में बराबर जीने का हक़ दिलाइए, समान अधिकारों के साथ, तब मैं भी आपके साथ कहूंगा कि सबको मान्यता है।

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

दलित विमर्श पर कालजयी कविता दी है आपने। प्रतीकात्मक शैली में आप बहुत बड़ी और आधारभूत विडम्बना के बारे में बात कर रहे हैं। हिन्द-युग्म पर इस स्तर की कविताओं का आना मंच का सौभाग्य ही है।

Alpana Verma का कहना है कि -

मैं तो यही समझती हूँ कि समाज में उपेक्षित वर्गों की और अनदेखी नहीं होनी चाहिये.क्यों कि उपेक्षाएं कुंठाओं को जन्म देती हैं जो की भविष्य में समाज के लिए हानिकारक हो सकती हैं.
१५ साल से मैं बाहर हूँ इसलिए ज्यादा क्या कहूँ लेकिन
मैं यहाँ भारतीय समाचारों में जो भारत देखती हूँ उस से कोई भी कह सकता है कि आज भी सभी को समान अधिकार नहीं हैं.माफ़ी चाहूंगी यह बात कहने को जो छवि हम यहाँ देखते हैं-उस को देख कर लगता नही कि आधारभूत मानव अधिकार भी 'सभी' को मिलते होंगे.
बेशक बहस इस विषय पर बहुत लम्बी हो सकती है.

Avanish Gautam का कहना है कि -

सही कह रही हैं अल्पना जी. सच्चाई यही है

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