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Friday, December 28, 2007

बेनकाब होके जो घर से मैं बाहर निकला


बेनकाब होके जो घर से मैं बाहर निकला
मेरे वास्ते हर इक जेब से खंज़र निकला

जा जा के मैं पीटा किया यारों के दरों को
मेरी सूरत से हर दोस्त बेखबर निकला

था जब तलक हिज़ाब में हरदिलअज़ीज़ था
बेपर्द हुआ तो बस राह का पत्थर निकला

वो जिसको दिल का मालिक बनाये बैठे थे
फूल की जगह उसके हाथ में नश्तर निकला

चेहरे पे हर किसी के याँ मिलते हैं मुखौटे
इन्साँ के वेष में हर एक जानवर निकला

भटका करेंगे हम तो 'अजय' तेरे शहर में
जब तक न कोई शख्स मोतबर निकला


हिज़ाब- पर्दा
मोतबर- विश्वसनीय

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13 कविताप्रेमियों का कहना है :

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

वाह |
हर शेर काबिले तारीफ है |
बहुत खूब |

अवनीश तिवारी

नीरज गोस्वामी का कहना है कि -

चेहरे पे हर किसी के याँ मिलते हैं मुखौटे
इन्साँ के वेष में हर एक जानवर निकला
बहुत खूब अजय जी. लिखते रहिये.
नीरज

Anonymous का कहना है कि -

क्या अजय जी आपका खंजर टू सीधे सीने में उतर गया,बहुत खूब
sadhuwaad
आलोक सिंह "साहिल"

परमजीत सिहँ बाली का कहना है कि -

हरिक शेर बहुत लाजवाब है और हकीकत को ब्यां करता है।

था जब तलक हिज़ाब में हरदिलअज़ीज़ था
बेपर्द हुआ तो बस राह का पत्थर निकला

वो जिसको दिल का मालिक बनाये बैठे थे
फूल की जगह उसके हाथ में नश्तर निकला

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

अजय जी, आप हर बार यह साबित करते हैं कि गज़ल में आपको महारत हासिल है।

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

अजय जी,

कमाल की गजल.. बहुत बढिया..
एक एक शेर लाजवाब

Nikhil का कहना है कि -

ये बेहतर ग़ज़ल है....मगर इसकी पंक्तियाँ सुनी-सी लगती हैं...पुराने वक्त की याद ताज़ा हो गयीं...बताता हूँ कैसे...
बचपन में (१३-१४ की उम्र) एक ग़ज़ल पढी थी, शायद "सलिल" की....मुझे बेहद पसंद आयीं थी...आज भी डायरी के पन्नों में उसकी पंक्तियाँ हैं.....आपको भी पढाता हूँ....
"आग आंखों में लिए, मैं कहाँ जाकर निकला..
मैंने जो फूंक दिया, वो मेरा ही घर निकला....
लोग कहने लगे पागल, पड़े पत्थर मुझको,
मैं न अय्यारी मे जब, उनके बराबर निकला...
घूम-फ़िर आया हूँ, कितने शिवाले मैं "सलिल",
मेरे सर के लिए निकला, तो तेरा दर निकला....

निखिल आनंद गिरि..

anuradha srivastav का कहना है कि -

था जब तलक हिज़ाब में हरदिलअज़ीज़ था
बेपर्द हुआ तो बस राह का पत्थर निकला
बहुत खूब अजय जी..........

Sajeev का कहना है कि -

अच्छी ग़ज़ल है अजय जी, इस बार शिल्प भी बहुत अच्छा है, पर हाँ कुछ नए प्रतिमान गढ़ने ज़रूरी हैं अब, ताकि ग़ज़ल मी कुछ नए शब्द और बिम्ब भी प्रयुक्त हो सकें,

Alpana Verma का कहना है कि -

ऐसा लगता है दुनिया भर से हताश,हर ओर से ठुकराए जाने पर किसी दिल से जो आह निकली होगी वह आप की ग़ज़ल बन गयी है.
हर शेर उम्दा है.

''था जब तलक हिजाब में हरदिलअज़ीज़ था
बेपर्दा हुआ तो बस राह का पत्थर निकला''
सही कहा आपने.
बहुत खूब!

Dr. sunita yadav का कहना है कि -

क्या बात है ...क्या कहूँ बस बहुत ही अच्छा है
सुनीता

विश्व दीपक का कहना है कि -

बेनकाब होके जो घर से मैं बाहर निकला
मेरे वास्ते हर इक जेब से खंज़र निकला

था जब तलक हिज़ाब में हरदिलअज़ीज़ था
बेपर्द हुआ तो बस राह का पत्थर निकला

भटका करेंगे हम तो 'अजय' तेरे शहर में
जब तक न कोई शख्स मोतबर निकला

उम्दा गज़ल है अजय जी। हरेक शेर मारक है। बधाई स्वीकारें।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

ansh का कहना है कि -

नमस्कार ,
आपकी कविता मुझे बहुत ही अच्छी लगी है ....
.
खैर मेरे बस में इतना टू नही है की मैं अआप की कविता में कोई नुक्स निकल सकूं ...
नव वर्ष की शुभ कामनाओं के साथ .......अश्वनी कुमार गुप्ता ...

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