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Monday, December 17, 2007

शहर का घर


घर
गाँव का अच्छा था
भलीं थीं मिट्टी की दीवारें
करके सुराख़
कहीं से हो सकती थी
किसी से बात ।
छत
खपरैल ही बढियाँ था
पसरी ख़ुशियाँ रहती थीं
लत्तरों में भाजियों के संग ।

हर साल की बाढ कहीं बेहतर थीं
हडकम्प मचा रहता था खेतों तक
हर साल संवरता था घर
और हर दिन
लगती थी नई ज़िन्दगी ।
माँ ! ढाई कमरे का मकान
बनें घर कैसे जरा बताओ?
शहर कह रहा है ---
’रहो इसी में
काटो उम्र – ज़िन्दगी बिताओ।’
बोलो कहाँ रखूँ यादें
कहाँ दर्द और आँसू छिपाऊँ?
नहीं कोई आँगन हँसी के लिये
फिर कैसे-कहाँ ख़ुशी कोई पाए?
जगह ढूँढता है तेरा भगवान भी
ऐसे पाषाण दुनिया को
कैसे घर अपना बताऊँ?

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12 कविताप्रेमियों का कहना है :

baba का कहना है कि -

अभिषेक जी
आप सच कह रहे हैं.-
काटो उम्र – ज़िन्दगी बिताओ।’
बोलो कहाँ रखूँ यादें
कहाँ दर्द और आँसू छिपाऊँ?
नहीं कोई आँगन हँसी के लिये
फिर कैसे-कहाँ ख़ुशी कोई पाए?
जगह ढूँढता है तेरा भगवान भी
ऐसे पाषाण दुनिया को
कैसे घर अपना बताऊँ?
बहुत sundar

baba का कहना है कि -

अभिषेक जी
आप सच कह रहे हैं.-
काटो उम्र – ज़िन्दगी बिताओ।’
बोलो कहाँ रखूँ यादें
कहाँ दर्द और आँसू छिपाऊँ?
नहीं कोई आँगन हँसी के लिये
फिर कैसे-कहाँ ख़ुशी कोई पाए?
जगह ढूँढता है तेरा भगवान भी
ऐसे पाषाण दुनिया को
कैसे घर अपना बताऊँ?
बहुत sundar

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

अभिषेक जी,

आपकी कविता क दर्द बहुत खास है, ज़मीन से कटने का दु:ख और जडविहीन होने के अहसास को आपके शब्द भरपूर प्राण देते हैं, अंतिम पंक्तिया विषेश प्रभावित करती हैं:

बोलो कहाँ रखूँ यादें
कहाँ दर्द और आँसू छिपाऊँ?
नहीं कोई आँगन हँसी के लिये
फिर कैसे-कहाँ ख़ुशी कोई पाए?
जगह ढूँढता है तेरा भगवान भी
ऐसे पाषाण दुनिया को
कैसे घर अपना बताऊँ?

*** राजीव रंजन प्रसाद

seema gupta का कहना है कि -

बोलो कहाँ रखूँ यादें
कहाँ दर्द और आँसू छिपाऊँ?
नहीं कोई आँगन हँसी के लिये
फिर कैसे-कहाँ ख़ुशी कोई पाए?

bdda hee durd hai in lines mey, bhut kuch unkha keh gye hain. very heart touching words......
" dil mey ager mai yadeyn rekhun, or hoton pe durd chepaun, aansu to ankhon sey chalak hee jaynege,unko khan le jaun????"

Regards

Sajeev का कहना है कि -

बोलो कहाँ रखूँ यादें
कहाँ दर्द और आँसू छिपाऊँ?
नहीं कोई आँगन हँसी के लिये
फिर कैसे-कहाँ ख़ुशी कोई पाए?
जगह ढूँढता है तेरा भगवान भी
ऐसे पाषाण दुनिया को
कैसे घर अपना बताऊँ?
अभिषेक जी जैसे मेरा ही दर्द बहर दिया हो आपने इन पंक्तियों में

रंजू भाटिया का कहना है कि -

खपरैल ही बढियाँ था
पसरी ख़ुशियाँ रहती थीं




फिर कैसे-कहाँ ख़ुशी कोई पाए?
जगह ढूँढता है तेरा भगवान भी
ऐसे पाषाण दुनिया को
कैसे घर अपना बताऊँ?

सुंदर ...आपकी रचना में जो मिटटी से जुड़ी बात नज़र आती है वह अदभुत है ,,,

Anonymous का कहना है कि -

पाटनी जी, जो जमीनी भाव आपने अपनी कविता में डाले हैं,वो बहुत ही बेहतरीन और मर्मस्पर्शी बन पड़े हैं.क्या दर्द उभरा है,सच कहूँ तो कविता कहीं न कहीं आदमी की हकीकत का बखान ख़ुद बखुद ही कर देती हैं.लाजवाब,लाजवाब
शुभकामनाओं समेत
आलोक सिंह "साहिल"

Alpana Verma का कहना है कि -
This comment has been removed by the author.
Alpana Verma का कहना है कि -

''ऐसे पाषाण दुनिया को
कैसे घर अपना बताऊँ?''
बहुत सही कहा आपने अपनी इस कविता --
-आज कल मकान 'घर' नहीं बन पाते हैं - आधुनिकता की यह एक और देन है.
दिल को छू लेने वाली रचना है.
...''जगह ढूँढता है तेरा भगवान भी''
बहुत खूब! बहुत सही!
बधाई!

Avanish Gautam का कहना है कि -

अभिषेक जी आपकी कविताओं से लगता है कि कवि होने की मूल प्रतिभा आप में पाई जाती है. एक बात जो मुझे लगती है कि आपकी कविताएँ अंत की ओर आते हुए लडखडा जाती हैं जैसे यही कविता, इसका पहला हिस्सा बढिया बना है दूसरे हिस्से की शुरुआत अच्छी हुई है लेकिन अंत तक आते-आते बात बिखरने लगती है...एक बात और है कि दो विरोधी स्थितियों को एक साथ रखने से चमत्कार होता तो प्रतीत होता है लेकिन इससे अर्थ गम्भीरता पर फर्क़ पडता है. आप एक गम्भीर कवि बन सकते है यह मुझे लगता है.

शुभकामनाओं सहित.

अवनीश

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

छत
खपरैल ही बढियाँ था या
छत
खपरैल ही बढियाँ थी?

कविता मुझे पसंद आई। आप चमत्कारिक शैली में लिखते हैं, लेकिन जहाँ से कविता पैठना शुरू करती है वहाँ आप जल्दी में दिखाई देते हैं।

mona का कहना है कि -

"Raasta safar" jaise ek acche rachna.
बोलो कहाँ रखूँ यादें
कहाँ दर्द और आँसू छिपाऊँ?
नहीं कोई आँगन हँसी के लिये
फिर कैसे-कहाँ ख़ुशी कोई पाए?
जगह ढूँढता है तेरा भगवान भी
ऐसे पाषाण दुनिया को
कैसे घर अपना बताऊँ?
Words are not enough to explain thebeauty of these lines.

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