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Sunday, January 27, 2008

आज के युवा


ये सब-
शब भर
नाक और लब पर
चिमनियाँ बिछाकर
और
आँखों में
उफ़क उतारकर
पत्तों की चमड़ी औ'
अपनों की दमड़ी को
फेफड़े की गुफा में
तिल-तिलकर
जलाते हैं।
ये
सदियों से सुर्ख पड़ी
सीने की पुरापाषाणकालीन
भित्तिचित्रों पर
शनै:शनै:
धुओं का हरापन चढाते हैं
ये
बड़े हीं आराम से
अपने हरेक श्वासोच्छ्वास में
गुफा की दीवारो को
नोचते-खरोचते हुए
दर-औ-दीवार का
भेद मिटाते हैं।

इस तरह
ये सब-
शब भर
अतीत का सीना कुचलते हैं
और
आह! अगली शब तक
खुद अतीत बन जाते हैं।

यही सब-
बेसबब
धूप के लोथड़े ओढकर
दिन का ढोंग रचाते हैं।
हर दिन-
आँख के नीचे तपते
कोयलों पर
रंग-रोगन डाल
खुद के खोल से
सर निकालते हैं,
दूसरी दुनिया के रास्ते धरते हैं
और
उफ! अपने हीं चौराहे
या फिर नुक्कड़ पर
गली और सड़कों से पिटते हैं।
ये-
हर याम हीं
वक्त की कब्र में
तब का आखिरी कील ठोकते हैं,
तब का!
क्योंकि ,
आखिरी तो........इनकी हीं कब्र पर ठुकता है।
ये-
हर पल हीं
हर उसको
हवस की उल्काओं तले
मसलते हैं,
बदन पर करोड़ों कोस गहरे
गड्ढे कर डालते हैं,
जो किसी-न-किसी विधि
विधि के द्वारा
इनकी बहन,बेटी या माँ बनाई जाती हैं।

ये-
बेखुद-से
हर दूसरा दिन
या तीसरी रात
मुँह पर
समंदर का झाग लपेटे
और बदन पर
साहिल की टूटन बटोरे
जमीं पर रेंगते कीड़ो
की आगोश में बिताते हैं।

ये-
हाँ! ये,
कोई और नहीं,
हमारे देश के भविष्य -
आज के युवा हैं।
वही युवा-
जिनके लाल रक्तकण औ'
श्वेत रक्तकण
'नेताजी' के हुंकारों से सने होने थे,
वही युवा-
जिनकी धमनियाँ और शिरे
'गेहूँ और गुलाब' बोने हेतु
सहराओं में भी बिछने थे,
वही युवा-
जिनके कदम
एकजुट हो हवाओं पर चलने थे,
हाँ!वही युवा-
जिनके एक हाथ में
अमन का परचम
और दूजे में भारतीय लोकतंत्र के स्तंभ
सजे होने थे।

परंतु आह!
आह! कि
वह पीढि
जो अतीत और भविष्य के
रास्ते जोड़ती , मंजिलें खोजती,
शायद
लुप्तप्राय है
या लुप्त होने के कगार पर है।

अब तो
काश!
काश! कि
शून्य से फिर एक आह्वान हो,
और कंस की भांति हीं सही
यह पीढि सचेत हो जाए
या
शंकर की जटाओं से
गंगा उतरे
और भगीरथ के निर्जीव पुत्र
जीवित हो जाएँ
या
फिर से कोई जाम्बवंत आए
और लाखों-करोड़ों हनुमानों को
उनके रूह,
उनकी ताकत का बोध करा दे।
काश.......................!

-विश्व दीपक 'तन्हा'

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16 कविताप्रेमियों का कहना है :

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

वाह!
इस कविता को पढ़ना सच में मेरा सौभाग्य है दोस्त।

नाक और लब पर
चिमनियाँ बिछाकर
और
आँखों में
उफ़क उतारकर

यही सब-
बेसबब
धूप के लोथड़े ओढकर
दिन का ढोंग रचाते हैं।

उफ! अपने हीं चौराहे
या फिर नुक्कड़ पर
गली और सड़कों से पिटते हैं।

बदन पर करोड़ों कोस गहरे
गड्ढे कर डालते हैं,

वही युवा-
जिनके लाल रक्तकण औ'
श्वेत रक्तकण
'नेताजी' के हुंकारों से सने होने थे

जानता हूं कि इस कविता को लिखना और सब कुछ समेट लाना कितना मुश्किल रहा होगा।
लेकिन चिंता न करो, एक दिन सब जागेंगे और सब नहीं जागे तो कुछ तो जागेंगे ही।
हाँ, कविता का अंत शेष भाग की अपेक्षा हल्का सा कमज़ोर है। लेकिन फिर भी बहुत अच्छा लिखा है तुमने। बधाई।

Anonymous का कहना है कि -

यही सब-
बेसबब
धूप के लोथड़े ओढकर
दिन का ढोंग रचाते हैं।
हर दिन-
आँख के नीचे तपते
कोयलों पर
रंग-रोगन डाल
खुद के खोल से
सर निकालते हैं,
दूसरी दुनिया के रास्ते धरते हैं
और
उफ! अपने हीं चौराहे
या फिर नुक्कड़ पर
गली और सड़कों से पिटते हैं।
ये-
हर याम हीं
वक्त की कब्र में
तब का आखिरी कील ठोकते हैं,
तब का!
क्योंकि ,
आखिरी तो........इनकी हीं कब्र पर ठुकता है।
ये-
हर पल हीं
हर उसको
हवस की उल्काओं तले
मसलते हैं,
बदन पर करोड़ों कोस गहरे
गड्ढे कर डालते हैं,
जो किसी-न-किसी विधि
विधि के द्वारा
इनकी बहन,बेटी या माँ बनाई जाती हैं।

ek dam sachhai ka varnan kiya hai apne,par ek din shayad ye badal jaye.
bahut sundar kavita hai.badhai

Sajeev का कहना है कि -

चिंता लाजमी है, पर कोई जम्बत नही आएगा, अब ख़ुद ही मशाल बन कर जलना होगा, आज का युवा बदल रहा है, उम्मीदों के स्वर सुनाई दे रहे हैं, तनहा जी अब आप तनहा नही हैं..... खैर, कविता के भाव और प्रवाह दोनों अच्छे हैं

Unknown का कहना है कि -

विश्व दीपक जी !

यह कविता शायद आनलाइन उन मित्रों के अन्तरमन को भी जगा सके जो …।
मं निशब्द जिन्हें सम्बोधित कर रहा हूं उन तक मेरी आवाज पहुंच रही है यह मैं जानता हूं
वस्तुत: इस रचना के लिये बधाई स्नेह

शोभा का कहना है कि -

तनहा जी
कविता मुझे बहुत प्रभावी लगी । बहुत सुन्दर लिखा है आपने । और सच कहूँ तो एक कवि धर्म का निर्वाह किया है । इतनी सशक्त लेखनी के कवि की आज महती आवश्यकता है ।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

बदन पर करोड़ों कोस गहरे
गड्ढे कर डालते हैं,
जो किसी-न-किसी विधि
विधि के द्वारा
इनकी बहन,बेटी या माँ बनाई जाती हैं।


बहुत ही सुंदर और दिल को अन्दर तक छू लेने वाली कविता लिखी है आपने दीपक जी .!!

seema gupta का कहना है कि -

नाक और लब पर
चिमनियाँ बिछाकर
और
आँखों में
उफ़क उतारकर

यही सब-
बेसबब
धूप के लोथड़े ओढकर
दिन का ढोंग रचाते हैं।
"बहुत सुन्दर लिखा है आपने "
Regards

prachi... का कहना है कि -

प्रभु...जैसा कि पहले ही कह चुकी हूँ....बहुत अच्छी ....पर आप हम जैसों का क्या करोगे जिनको आनेवाली 14 feb और सारे तथाकथित DAYS तो याद रखते हैं पर बीत चुकी 23 january को एक बार ख्याल तक नहीं आया होगा कि एक "नेता जी " भी हुआ करते थे ...

"राज" का कहना है कि -

wah sher....aapne to kamal ka likha hai.....yaar aapki lekhan kala me to jabardast nikhar aa raha hai..thoda hame bhi kuchh tips dijiye... :)
*******************
उफ़क उतारकर
पत्तों की चमड़ी औ'
अपनों की दमड़ी को
फेफड़े की गुफा में
तिल-तिलकर
जलाते हैं।

सीने की पुरापाषाणकालीन
भित्तिचित्रों पर
शनै:शनै:
धुओं का हरापन चढाते हैं

बड़े हीं आराम से
अपने हरेक श्वासोच्छ्वास में
गुफा की दीवारो को
नोचते-खरोचते हुए
दर-औ-दीवार का
भेद मिटाते हैं।

और
आह! अगली शब तक
खुद अतीत बन जाते हैं।

यही सब-
बेसबब
धूप के लोथड़े ओढकर
दिन का ढोंग रचाते हैं।
हर दिन-
आँख के नीचे तपते
कोयलों पर
रंग-रोगन डाल
खुद के खोल से
सर निकालते हैं,
दूसरी दुनिया के रास्ते धरते हैं
और
उफ! अपने हीं चौराहे
या फिर नुक्कड़ पर
गली और सड़कों से पिटते हैं।

हर पल हीं
हर उसको
हवस की उल्काओं तले
मसलते हैं,
बदन पर करोड़ों कोस गहरे
गड्ढे कर डालते हैं,
जो किसी-न-किसी विधि
विधि के द्वारा
इनकी बहन,बेटी या माँ बनाई जाती हैं।

बेखुद-से
हर दूसरा दिन
या तीसरी रात
मुँह पर
समंदर का झाग लपेटे
और बदन पर
साहिल की टूटन बटोरे
जमीं पर रेंगते कीड़ो
की आगोश में बिताते हैं।

वही युवा-
जिनकी धमनियाँ और शिरे
'गेहूँ और गुलाब' बोने हेतु

परंतु आह!
आह! कि
वह पीढि
जो अतीत और भविष्य के
रास्ते जोड़ती , मंजिलें खोजती,
****************
mitra har line itni khubsoorti se likha hai ki kya kahu...shabd kam par rahe hain.....
chaliye valentines day ke liye achha sandesh diya hai aapne yuwaon ko...hope ki log bhawnao ko samjhein....

Alpana Verma का कहना है कि -

हिन्दयुग्म पर मेरी पढी हुई कवितायों में यह दूसरी लम्बी कविता है.
बेहद संतुलित और प्रवाह लिए हुए बेहद प्रभावी कविता.
हर अंश ही अच्छा लिखा है-इसलिए कोई एक -दो पंक्तियाँ उठा नहीं पाई.
अगर इस कविता से एक भी भटका क़दम संभल जाए तो कवि सार्थक है.
बहुत ही अच्छी कविता लिखी है.बधाई.
ईश्वर करे आप की लेखनी सलामत और सेहतमंद रहे-

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

मैं भी निःशब्द हूँ

नमन है आपकी लेखनी को..

Anonymous का कहना है कि -

तन्हा भाई, बहुत ही प्रभावशाली कविता.हर युवा इससे प्रेरणा लेना चाहेगा.
बधाई हो
आलोक सिंह "साहिल"

anuradha srivastav का कहना है कि -

सोचने को मजबूर करती ........बहुत ही सुंदर और दिल को छू लेने वाली कविता लिखी है .

गीता पंडित का कहना है कि -

भाव और प्रवाह.....
दोनों अच्छे हैं...

बधाई।

आज का युवा बदल रहा है दीपक जी !
मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूं......

ज्यादा सक्षम,ज्यादा जिम्मेदार...बना है ।
ना महनत से घबरा रहा है,ना ही कल्पनाओं में जीता है...अपितु स्वप्न देखता है तो साकार करने की हिम्मत भी रखता है..पूरे-जोशो-खरोश से.....

पाँचों उंगलियाँ बराबर नहीं होतीं...अच्छाई, बुराई हमेशा हर काल में रही है...." एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है "...की कहावत यहाँ चरितार्थ नहीं होती....
मार्ग-दर्शन की आवश्यकता है उसे बस....

शुभ-कामनाएं


स-स्नेह
गीता पंडित

सदा का कहना है कि -

बहुत ही अच्‍छी रचना आभार्

dipak का कहना है कि -

geeta pandey ne jo kha usse sahmat hun.

achchhi kavita ke liye badhai

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)