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Tuesday, February 19, 2008

उजालों नें डसा




हर किरन चाहती है
कि हाथ थाम ले मेरा
और मैं अपने ही गिर्द
अपने ही बुने जालों में छटपटाता
चीखता/निढाल होता
और होता पुनः यत्नशील
अपनी ही कैद से बाहर आना चाहता हूं
काश! अँधेरे ओढे न होते
तुम्हारी तरह मज़ाक समझा होता
अपना साथ, प्यार, भावना
संबंधों की तरलता
लोहित सा उद्वेग
तमाम चक्रवात, तूफान, ज्वार और भाटे

काश! मेरा नज़रिया मिट्टी का खिलौना होता
किसी मासूम की बाहों या कलेजे से लगा नहीं
किसी खूबसूरत से मेजपोश पर
आत्मलिप्त..खामोश
जिसकी उपस्थिति का आभास भी हो
जिसकी खूबसूरती का भान भी हो
जिसके टूट जाने का गम भी न हो
जो ज़िन्दगी में हो भी
और नहीं भी..

काश! मेरा मन इतना गहरा न होता
काश! होते
मेरे चेहरे पर भी चेहरे और चेहरे
काश! मरीचिका को मरीचिका ही समझा होता मैने
तुम्हारे चेहरे को आइना समझ लिया
आज भान हुआ
कितनी उथली थी तुम्हारी आँखें
कि मेरा चेहरा तो दीखता था
लेकिन मेरा मन और मेरी आत्मा आत्मसात न हो सकी तुममें

काश! तुम्हे भूल पाने का संबल
दे जाती तुम ही
काश! मेरे कलेजे को एक पत्थर आखिरी निशानी देती
चाक- चाक कलेजे का सारा दर्द सह लेता
आसमां सिर पे ढह लेता तो ढह लेता..
गाज सीने पे गिरी
आँधियां तक थम गयी
खामोशियों की सैंकडों परतें जमीं मुझ पर तभी
आखों में एक स्याही फैली..फैली
और फैली
समा गया सम्पूर्ण शून्य मेरे भीतर
और "मैं" हो गया
मुझे पल पल याद है
अपने खंडहर हो जाने का

काश! हवायें बहना छोड दें
सूरज ढलना छोड दे
चाँद निकलना छोड दे
नदियाँ इठला कर न बहें
तितलियाँ अठखेलियाँ न करें
चिडिया गीत न गाये
बादल छायें ही नहीं आसमान पर
काश! मौसम गुपचुप सा गुज़र जाये
काश! फूल अपनी मीठी मुस्कान न बिखेरें
काश्!...
काश कि ऐसा कुछ न हो कि तुम्हारी याद
मेरे कलेज़े का नासूर हो जाये
कि अब सहन नहीं होती
अपना ही दर्द आप सहने की मज़बूरी....

और वो तमाम जाले
जो मैंने ही बुने हैं
तुम्हारे साथ गुज़ारे एक एक पल की यादें
तुम्हारी हँसी
तुम्हारी आँखें
तुम तुम सिर्फ तुम
और तुम
और तुम
रग- रग में तुम
पोर -पोर में तुम
टीस- टीस में तुम

धडकनें चीखती रही तुम्हारा नाम ले ले कर
और अपने कानों पर हथेलियाँ रख कर भी
तुम होती रही प्रतिध्वनित भीतर
तुमनें मुर्दों को भी जीनें न दिया
अंधेरे ओढ लिये मैनें
सचमुच उजालों से डर लगता है मुझे
जबसे उजालों नें डसा है
कि तुमनें न जीनें दिया न मारा ही

*** राजीव रंजन प्रसाद
१६.०४.१९९५

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23 कविताप्रेमियों का कहना है :

seema gupta का कहना है कि -

काश कि एसा कुछ न हो कि तुम्हारी याद
मेरे कलेज़े का नासूर हो जाये
कि अब सहन नहीं होती
अपना ही दर्द आप सहने की मज़बूरी....
" बहुत सुंदर रचना, शीर्षक को सार्थक करती एक एक पंक्तीयाँ "
Regards

श्रवण सिंह का कहना है कि -

काश,कि भावनाओं का ये प्रवाह चलता जाता.....
मै भी बहता चला जाता........।
बेहद सुन्दर रचना।
शास्त्रीयता के लीक को छोड़ सौन्दर्य का दामन जो आपने पकड़ा है, काबिले-तारीफ है।

आपकी अगली रचना के इंतजार मे,
श्रवण

रंजू भाटिया का कहना है कि -

काश कि मेरा मन इतना गहरा न होता
काश कि होते
मेरे चेहरे पर भी चेहरे और चेहरे
काश कि मरीचिका को मरीचिका ही समझा होता मैने...

बहुत दिनों बाद आपका लिखा हुआ पढ़ा राजीव जी सुंदर रचना है !!

गीता पंडित का कहना है कि -

जितना पढती जा रही थी...उतना ही भीतर तक शब्द-शब्द को आत्मसात करती जा रही थी स्वतः ही....बेहद मर्म-स्पर्शी रचना....मेरी आंखें नम हो गयी हैं.....राजीव जी.....और मन.....पूर्णतः भीग गया है.......वाह........

बधाई आपको ।

Mohinder56 का कहना है कि -

राजीव जी

दिस इज काल्ड रिटर्न विद द बेंग....
लम्बे अन्तराल के बाद आप का स्वागत है..
सुन्दर लिखा है आपने... मनो भावों को कोरे कागज पर उतार दिया है.

मेरे शब्दों

राह में कोई बाधा नहीं है
बंधक हूं मैं बस अपने चिन्तन का

mehek का कहना है कि -

काश कि मेरा मन इतना गहरा न होता
काश कि होते
मेरे चेहरे पर भी चेहरे और चेहरे
काश कि मरीचिका को मरीचिका ही समझा होता मैने
तुम्हारे चेहरे को आइना समझ लिया
आज भान हुआ
कितनी उथली थी तुम्हारी आँखें
कि मेरा चेहरा तो दीखता था
लेकिन मेरा मन और मेरी आत्मा आत्मसात न हो सकी तुममें
बहुत सुंदर बधाई

SahityaShilpi का कहना है कि -

राजीव जी! आज बहुत दिनों बाद आपकी कोई रचना पढ़ने को मिली और क्या खूब मिली! सचमुच बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है. आभार एक सुंदर रचना पढ़वाने के लिये!

anuradha srivastav का कहना है कि -

काश कि अंधेरे ओढे न होते
तुम्हारी तरह मज़ाक समझा होता
अपना साथ, प्यार, भावना
संबंधों की तरलता
लोहित सा उद्वेग
तमाम चक्रवात, तूफान, ज्वार और भाटे

राजीव जी लम्बे अन्तराल के बाद आपको पढा अच्छा लगा।

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

राजीव जी,
हिन्द युग्म को बहुत दिन से आपकी कमी खल रही थी। आप जैसा लिखते हैं, वैसा कोई और नहीं लिख पाता और इतने दिनों बाद तो आपको पढ़ना वैसे भी एक अत्यंत सुखद अनुभव है।
जिसकी उपस्थिति का आभास भी हो
जिसकी खूबसूरती का भान भी हो
जिसके टूट जाने का गम भी न हो
जो ज़िन्दगी में हो भी
और नहीं भी..

चाक चाक कलेजे का सारा दर्द सह लेता
आसमां सिर पे ढह लेता तो ढह लेता..

अंधेरे ओढ लिये मैनें
सचमुच उजालों से डर लगता है मुझे
जबसे उजालों नें डसा है
कि तुमनें न जीनें दिया न मारा ही

लम्बी थी, मगर एक साँस में पूरी कविता पढ़ गया।
लाज़वाब।

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

लाजवाब रचना...

काश कि मेरा मन इतना गहरा न होता
काश कि होते
मेरे चेहरे पर भी चेहरे और चेहरे
काश कि मरीचिका को मरीचिका ही समझा होता मैने
तुम्हारे चेहरे को आइना समझ लिया
आज भान हुआ
कितनी उथली थी तुम्हारी आँखें
कि मेरा चेहरा तो दीखता था
लेकिन मेरा मन और मेरी आत्मा आत्मसात न हो सकी तुममें


अंतराल के बाद पढ़ा, बहुत अच्छी सशक्त रचना..

शोभा का कहना है कि -

राजीव जी
बहुत दिनो बाद आपकी कविता पढ़ने को मिली है और बहुत दिनों की कसर आपने पूरी कर दी है। बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति है। दिल की गहराइयों से निकली कविता है ।
काश! हवायें बहना छोड दें
सूरज ढलना छोड दे
चाँद निकलना छोड दे
नदियाँ इठला कर न बहें
तितलियाँ अठखेलियाँ न करें
चिडिया गीत न गाये
बादल छायें ही नहीं आसमान पर
काश! मौसम गुपचुप सा गुज़र जाये

बहुत-बहुत बधाई

Anonymous का कहना है कि -

ये लो जी अब इंतजार ख़त्म हुआ,बहुत बेहतरीन प्रस्तुति,दिल मे उतर गई,बहुत बहुत मुबारकबाद.
एक समस्या है राजीव जी अगर अन्यथा न लें तो कृपा करके मुझे "अत्मलिस" का मतलब समझा दीजिएगा,
धन्यवाद

आलोक सिंह "साहिल"

Unknown का कहना है कि -

धडकनें चीखती रही तुम्हारा नाम ले ले कर
........
अंधेरे ओढ लिये मैनें
सचमुच उजालों से डर लगता है मुझे
जबसे उजालों नें डसा है
कि तुमनें न जीनें दिया न मारा ही

राजीव जी !
एक एक मंगल आपके इन्तजार में गुजारा है मित्र

RAVI KANT का कहना है कि -

राजीव जी, बहुत सुन्दर लगी रचना और उतना ही अच्छा लगा आपको लंबे अंतराल के बाद देखना। सक्रियता बनाए रखें ताकि पाठकों को अच्छी रचनाएँ मिलती रहें।

काश! मेरा नज़रिया मिट्टी का खिलौना होता
किसी मासूम की बाहों या कलेजे से लगा नहीं
किसी खूबसूरत से मेजपोश पर
आत्मलिप्त..खामोश
जिसकी उपस्थिति का आभास भी हो
जिसकी खूबसूरती का भान भी हो
जिसके टूट जाने का गम भी न हो
जो ज़िन्दगी में हो भी
और नहीं भी..

वाह-वाह।

Sajeev का कहना है कि -

सचमुच आपकी कविता के बिना युग्म कुछ सूना सूना था, पर जैसे गर्मी के तपते मौसमों के बाद जब वर्षा आती है, तो सब बूंदों की ठंडक में रम जाते हैं, और बीते दिन भूल जाते हैं, कुछ ऐसा ही काम आपकी इस कविता ने किया, वेल्कॉम बेक श्रीमान

Admin का कहना है कि -

जालिम की कल्पना:-

कवि एकता कपूर से प्रभावित लगता है कवि ने थोडी थोडी देर बाद काश लिखा है जैसे की एकता कपूर अपने हर नाटक का नाम के से रखती है

कवि झूठ बोल रहा है उसे उजाले सेनाही उठने से दर लगता है इसलिए वो सोने के बहाने तलाश रहा है....

हा हा.... कवि मसखरा है

विश्व दीपक का कहना है कि -

राजीव जी,
बहुत दिनों बाद हिन्द-युग्म को आपके हस्ताक्षर प्राप्त हुए है। और सच हीं कहते है "देर आये दुरूस्त आये"।इस कविता की प्रत्येक पंक्ति सहेजे जाने योग्य है। इसलिए किसी खास को यहाँ प्रस्तुत नहीं कर रहा।
एक बेहद हीं सच्ची एवं प्यारी कविता के लिए बधाई स्वीकारें।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Unknown का कहना है कि -

काश! मेरा मन इतना गहरा न होता
काश! होते
मेरे चेहरे पर भी चेहरे और चेहरे
काश! मरीचिका को मरीचिका ही समझा होता मैने
तुम्हारे चेहरे को आइना समझ लिया
आज भान हुआ
कितनी उथली थी तुम्हारी आँखें
कि मेरा चेहरा तो दीखता था
लेकिन मेरा मन और मेरी आत्मा आत्मसात न हो सकी तुममें.......
हर दिल का दर्द सिमट आया है इन पक्तिंयों में

Avanish Gautam का कहना है कि -

अच्छी कविता राजीव जी. बधाई!

नीरज गोस्वामी का कहना है कि -

गहरे भाव लिए हृदय स्पर्शी रचना...इतने वर्षों पूर्व लिखी रचना को आप अब प्रकाश में लायें हैं? ये तो पाठकों के प्रति अन्याय है.
नीरज

Alok Shankar का कहना है कि -

raajiv ji,
welcome back.
bahut dino se kisi kalam ne aag nahi ugli thi

Alpana Verma का कहना है कि -

काश! मेरा मन इतना गहरा न होता
काश! होते
मेरे चेहरे पर भी चेहरे और चेहरे
काश! मरीचिका को मरीचिका ही समझा होता मैने
तुम्हारे चेहरे को आइना समझ लिया
***बहुत से पलों को एक साथ जी लेने और काश के सहारे ख़ुद को तस्लली देने का खूब चित्रण किया है आपने इस कविता में.
कविता में लम्बी होते हुए भी प्रवाह के साथ प्रभाव ऐसा है कि अंत तक पढने को मजबूर करती है.

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

राजीव जी,

अच्छी वापसी है आपकी।

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