फटाफट (25 नई पोस्ट):

Wednesday, March 05, 2008

बस्तर में आजकल


बस्तर की वादियों में
यमदूत उतर आए हैं
गाँव खाली हैं, लोग बेघर
खेत बंजर, जंगल सुन्न है
हवा में घुल गई है, बारूदी गंध
अब बच्चे नही खेलते हैं
पेडों के नीचे/ पेडों पर नही चढते हैं
नही करते हैं /नदी पहाडों जंगलों की सैर
धमाकों से सहमे हुए बच्चे
स्कूल जाने भी डरते हैं
पनिया गया है/ ताडी शल्फी का स्वाद
तीखुर मडिया की मिठास पर
भयानक कडुवाहट भरी है
गायब होती जा रही है/ हाट-बाज़ार की रौनक
‘भागा’ और ‘पुरौनी’ की आदिम प्रथा
युवक-युवतियों की हँसी-ठठ्ठा
अब गाँवों में नही लगती है पंचायतें
नही होता कोई आपसी फैसला
फ़रमान जारी होते हैं
मौत! मौत!! मौत!!!
बाजे-गाजे खामोश हो चुके हैं
अब नही बजता है ‘मृत्यु-संगीत’
परिजनो की मौत पर भी
रोने की सक्त मनाही है
यहाँ के नदी पहाड जंगल गाँव
सब पर यमराज का कडा पहरा है
सदियों से सताए हुए लोग
आज भी विवश हैं
भूख दुख और शोषण के
पिराते पलों में जीने के लिए
लेकिन राजनीति का रंग गहरा है
*****
डॉ.नंदन ,बचेली ,बस्तर (छ.ग.)

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

14 कविताप्रेमियों का कहना है :

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

डॉ. नंदन,

बस्तर की पीडा को सटीक शब्द दिये हैं आपने। बहुत सी एसी मनोरम प्रथायें और पर्वों, जिनका आपने जिक्र किया है संभव से बस्तर के बाहर के पाठक उनकी मस्ती (जो अब खो गयी)से परिचित न हों....किंतु आपके शब्दों में निहित पीडा को अक्षरक्ष: समझा जा सकता है।

नक्सली जंगलों के और आदिम संस्कृति के लिये अभिशाप हैं..काश हम निकम्मी सरकारों के दौर में न होते।

*** राजीव रंजन प्रसाद

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

नंदन जी,
बिल्कल सही कहा है आपने। आम लोग राजनेताओं के चक्कर में फँसे हैं। सरकार चाहे तो नक्सली क्या, किसी भी तरह का आतंकवाद खत्म कर सकते हैं। राजीव जी ने सही कहा, मैं भी इन त्योहारों से अपरीचित हूँ। पर ऐसा कब तक चलेगा? और इस समस्या का हल क्या है?

Sanjeet Tripathi का कहना है कि -

कहां खो गई
बस्तर की
आदिम हवा
और
कहां गुम गया
घोटुल
बच्चे बस्तर के
अब कहां रह पाते हैं
सिर्फ़ बच्चे
बनते जा रहे वह
तो "कैरियर"
"दादाओं" के
कितना लिखें
खत्म नही होती
वह बातें
जो बस्तर को
बस्तर बनाती थीं!!

Harihar का कहना है कि -

खेत बंजर, जंगल सुन्न है
हवा में घुल गई है, बारूदी गंध
अब बच्चे नही खेलते हैं
पेडों के नीचे/ पेडों पर नही चढते हैं
नही करते हैं /नदी पहाडों जंगलों की सैर
धमाकों से सहमे हुए बच्चे
स्कूल जाने भी डरते हैं
पनिया गया है/ ताडी शल्फी का स्वाद
तीखुर मडिया की मिठास पर
भयानक कडुवाहट भरी है
गायब होती जा रही है/ हाट-बाज़ार की रौनक

चित्रण बहुत अच्छा है डा. नंदन जी

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

गहरी वेदना उभर कर आयी है आपकी लेखनी से
सच में सब कुछ सूना होता जा रहा है, राजनैतिक फायदे के लिये लोग धकेले जा रहे हैं गर्त में
और पस दरिंदगी का साम्राज्य पनप रहा है..

करण समस्तीपुरी का कहना है कि -

‘भागा’ और ‘पुरौनी’ की आदिम प्रथा
युवक-युवतियों की हँसी-ठठ्ठा
अब गाँवों में नही लगती है पंचायतें
नही होता कोई आपसी फैसला
फ़रमान जारी होते हैं
मौत! मौत!! मौत!!!

आधुनिक व्यवस्था और मानसिकता दोनों पर गंभीर वयंग्य ! देशज शब्दों के सानुकूल प्रयोग ने कविता को और भी प्रभावपूर्ण बना दिया है !
काश यह किसी की आँख खोलने में कामयाब हो !!

mehek का कहना है कि -

बस्तर का दर्द दिल म उतर गया ,बहुत मार्मिक कविता बहुत ही अच्छी

anju का कहना है कि -

नंदन जी आपकी कविता में गहराई है . सोचने पर मजबूर कर रही है

पेडों के नीचे/ पेडों पर नही चढते हैं
नही करते हैं /नदी पहाडों जंगलों की सैर
धमाकों से सहमे हुए बच्चे
स्कूल जाने भी डरते हैं
पनिया गया है/
गायब होती जा रही है/ हाट-बाज़ार की रौनक
‘भागा’ और ‘पुरौनी’ की आदिम प्रथा
युवक-युवतियों की हँसी-ठठ्ठा
अब गाँवों में नही लगती है पंचायतें
नही होता कोई आपसी फैसला
एक आम आदमी की ज़िंदगी और राजनीती को जिस तरीके से दर्शाया है
बहुत खूब
काश इन बुराईयों को दूर कर सके
आपकी कविता दिल को छु जाती है
लिखते रहिये

Anonymous का कहना है कि -

नंदन जी बिल्कुल सही अंदाज में सही बात,बधाई हो
आलोक सिंह "साहिल"

विश्व दीपक का कहना है कि -

गायब होती जा रही है/ हाट-बाज़ार की रौनक
‘भागा’ और ‘पुरौनी’ की आदिम प्रथा
युवक-युवतियों की हँसी-ठठ्ठा
अब गाँवों में नही लगती है पंचायतें
नही होता कोई आपसी फैसला
फ़रमान जारी होते हैं
मौत! मौत!! मौत!!!

लेकिन राजनीति का रंग गहरा है

नंदन जी!
यह रचना नस्तर की भांति चुभती है, लेकिन सच है, कड़वा सच है, मानना हीं पड़ेगा।

अंतिम पंक्ति सारा यथार्थ बयान कर देती है।

रचनाकार के रूप में आप सफल हैं।
बधाई स्वीकारें।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

SahityaShilpi का कहना है कि -

बस्तर के वर्तमान हालात का सजीव और मार्मिक चित्रण करने के साथ-साथ गहरा व्यंग्य करने में आप सफल रहे हैं.
सचमुच राजनीति का रंग गहरा है पर इन हालात से उपजे दर्द का रंग भी कम गहरा नहीं रह गया है. वो दिन दूर नहीं जब इस दर्द से उपजी शांति और सह-अस्तित्व की भावना नक्सलवाद को उखाड़ फेंकेगी.

dr minoo का कहना है कि -

dr nandan...rajniti ka rang gahra hai...ek soch paida karti hai aapki kavita...

RAVI KANT का कहना है कि -

बस्तर की वादियों में
यमदूत उतर आए हैं
********
परिजनो की मौत पर भी
रोने की सक्त मनाही है

नंदन जी मार्मिकता की पराकाष्ठा को छूती हुई रचना।
सहज ही झकझोरने में सक्षम।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

धमाकों से सहमे हुए बच्चे
स्कूल जाने भी डरते हैं
पनिया गया है/ ताडी शल्फी का स्वाद
तीखुर मडिया की मिठास पर
भयानक कडुवाहट भरी है
गायब होती जा रही है/ हाट-बाज़ार की रौनक
‘भागा’ और ‘पुरौनी’ की आदिम प्रथा
युवक-युवतियों की हँसी-ठठ्ठा

बस्तर के परिवेश से परिचित कराती बहुत ही भाव पूर्ण रचना लगी आपकी यह नंदन जी ..!!

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)