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Tuesday, March 04, 2008

स्वयं बोध


चलो नीड़ की ओर
बन्धु अब चलो नीड़ की ओर
जाने कितनी बार छला तू
छलना है चहुँ ओर
चलो नीड़ की ओर ...

नील गगन पर
विहगों के दल
विचरण करते अनगिन
भूख प्यास से
गिरि प्रवास से
व्याकुल होकर
खोजें दाना निशिदिन
मिले कहीं यदि आखेटक जो
फंस जाते चहुँ ओर
प्राण प्रिय ....
उडो नीड़ की ओर
छलना है चहुँ ओर ....

माया के तम
घिर घिर आये
अंधियारे ने पंख पसारे
उल्लू चमगादड की बानी ..
जग बोला चहुँ ओर
बन्धु तुम ..
तजो मोह की डोर
छलना है चहुँ ओर ....

तूने निज को
दांव लगाकर
जीवन में क्या पाया
तृण खोया अपने वन का सब
मूरख ही कहलाया
आग लगादे .....
उपवन में अब
हों लपटें घनघोर
अरे ! तू गहे राम की डोर
रे भैया छलना है चहुँ ओर

जिन की प्रीत के पाहन पूजे
दीपक जोत जलायी
अंधियारे में जिनके संग चल
ठोकर भी है खायी
उनके चन्दा..
आज अमावस
कहाँ किरण की भोर
बन्धु अब ...
उड़ो नीड़ की ओर
चलो नीड़ की ओर
विहग सब उड़ो नीड़ की ओर

सारे साथी जीवन बाती
जग में हैं सब झूठे
उनकी अन्तर कोर हिले ना
तू कितना ही रूठे
ऐसे में तू कब तक पंछी
उड़ता है अब और ..
छोड़ दे दूजों की डग डोर
पकड़ ले ..
निज उपवन की ठौर
छोड़ दे छलनामय रंग रौर
उड़ चले उस जीवन की ओर
जहाँ है राम राम सब ओर

चलो नीड़ की ओर
बन्धु अब चलो नीड़ की ओर
जाने कितनी बार छला तू
छलना है चहुँ ओर ....
27 Jul 1985

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22 कविताप्रेमियों का कहना है :

anju का कहना है कि -

श्रीकांत जी बहुत अच्छे
अच्छा लिखा है आपने उपदेशात्मक कविता है

साथी जीवन बाती
जग में हैं सब झूठे
उनकी अन्तर कोर हिले ना
तू कितना ही रूठे
ऐसे में तू कब तक पंछी
उड़ता है अब और ..
छोड़ दे दूजों की डग दोर
पकड़ ले ..
यह पंक्तियाँ प्रभावकारी है और अलग अंदाज़ है

Anonymous का कहना है कि -

सारे साथी जीवन बाती
जग में हैं सब झूठे
उनकी अन्तर कोर हिले ना
तू कितना ही रूठे
ऐसे में तू कब तक पंछी
उड़ता है अब और ..
छोड़ दे दूजों की डग डोर
पकड़ ले ..
निज उपवन की ठौर
छोड़ दे छलनामय रंग रौर
उड़ चले उस जीवन की ओर
जहाँ है राम राम सब ओर
बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ लगी,सुंदर रचना ke लिए बधाई स्वीकारे

seema gupta का कहना है कि -

चलो नीड़ की ओर
बन्धु अब चलो नीड़ की ओर
जाने कितनी बार छला तू
छलना है चहुँ ओर
चलो नीड़ की ओर ...
" भावपूर्ण प्रस्तुती , अच्छी रचना "
Regards

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

चलो नीड़ की ओर
बन्धु अब चलो नीड़ की ओर
जाने कितनी बार छला तू
छलना है चहुँ ओर ....

रचना प्रभावी है और प्रवाह प्रशंसनीय..

*** राजीव रंजन प्रसाद

भोजवानी का कहना है कि -

स्वयं बोध.....कबीर सारा-रा-रा-रा-रा-रारारारारारारारार...जोगी जी सारा-रा-रा-रा-रा-रारारारारारारार

Anonymous का कहना है कि -

बहुत खूबसूरत व भावपूर्ण रचना मुबारक हो श्रीकांत जी

जीतेश का कहना है कि -

श्रीकांत जी अच्छा लिखा है...

तूने निज को
दांव लगाकर
जीवन में क्या पाया
तृण खोया अपने वन का सब
मूरख ही कहलाया
आग लगादे .....
उपवन में अब
हों लपटें घनघोर
यथार्थ झलकता सा प्रतीत हुआ.........

vivek "Ulloo"Pandey का कहना है कि -

भूख प्यास से
गिरि प्रवास से
व्याकुल होकर
खोजें दाना निशिदिन
मिले कहीं यदि आखेटक जो
फंस जाते चहुँ ओर
प्राण प्रिय ....
उडो नीड़ की ओर
छलना है चहुँ ओर ....
उपरोक्त पंक्तियाँ कवि के विच्रों एवं सोच की गहरे का चित्रण कर रही है ...वर्त्तमान परिदृश्य पेर भी अच्छा कत्ताक्ष है .

Harihar का कहना है कि -

श्रीकान्त जी, मैं NRI हूं आपके जीवन दर्शन से
कैसे सहमत हो सकता हूं? हा.. हा.. हा..
वैसे आपकी कविता अच्छी है

Sajeev का कहना है कि -

आपकी इस पुरानी कविता में आज भी एक कोरापन है, सच्चाई है, जो महसूस होती है

नंदन का कहना है कि -

श्रीकांत जी
'स्वयं बोध' सुन्दर भावपूर्ण रचना ।
संतों सी भाषा, खुद का भाव।
वर्तमान की पीडा,गहरा है घाव॥

करण समस्तीपुरी का कहना है कि -

चलो नीड़ की ओर
बन्धु अब चलो नीड़ की ओर
जाने कितनी बार छला तू
छलना है चहुँ ओर ....
सरल साधु शब्दावली में व्यक्त आदि ग्रन्थ महाभारत के "यक्ष-युधिस्थिर वार्ता" के प्रश्न " किमाश्चर्यम" का अभिनव चित्रण ! सृष्टि के एक मात्र यथार्थ की तदनुकूल अभिव्यक्ति ! धन्यवाद !!

Mohinder56 का कहना है कि -

श्रीकान्त जी,
२३ साल पुरानी परन्तु जीवन के सत्य से सरोबार सुन्दर रचना पढवाने के लिये धन्यवाद. जीवन का सत्य यही है

छलना है चहुँ ओर
तूने निज को
दांव लगाकर
जीवन में क्या पाया
तृण खोया अपने वन का सब
मूरख ही कहलाया
छलना है चहुँ ओर


सारे साथी जीवन बाती
जग में हैं सब झूठे

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

कांत जी,

चलो नीड़ की ओर
बन्धु अब चलो नीड़ की ओर
जाने कितनी बार छला तू
छलना है चहुँ ओर
चलो नीड़ की ओर ...

बहुत ही सुन्दर शैली की कविता, एक दम हकीकत बयान करती..

रंजू भाटिया का कहना है कि -

तूने निज को
दांव लगाकर
जीवन में क्या पाया
तृण खोया अपने वन का सब
मूरख ही कहलाया

बहुत सुंदर लिखा है श्रीकांत जी आपने !!

Anonymous का कहना है कि -

बहुत ही प्रभावशाली कविता सर जी
आलोक सिंह "साहिल"

Unknown का कहना है कि -

अग्रज हरिहर झा !
आपका और मेरा जीवन दर्शन अलग अलग है ही नहीं अतः असहमत होने का प्रश्न ही नहीं उठता. वैसे भी यह रचना आज से लगभग २३ वर्ष पूर्व जिस युवा ने लिखी थी यह उसी समय का प्रतिबिम्ब ही है और ताबा से जीवन की गंगा में बहुत पानी बह चुका है. फ़िर मेरे विचार से जिससे हम असहमत होते हैं वहाँ भी कम से कम एक सहमति तो होती ही है असहमत होने की ... प्रणाम

शोभा का कहना है कि -

श्रीकान्त जी
रचना अतीव सुन्दर जीवन दर्शन लिए है। बहुत बार इस प्रकार की विरक्ति जीवन में आती है ।
माया के तम
घिर घिर आये
अंधियारे ने पंख पसारे
उल्लू चमगादड की बानी ..
जग बोला चहुँ ओर
बन्धु तुम ..
तजो मोह की डोर
छलना है चहुँ ओर ....

बीस साल पहले आप इस स्थिति तक पहुँच गए तो वर्तमान में तो आपकी चिन्तनशीलता निश्चय ही
और परिपक्व हुई होगी। भाषा और भाव दोनो प्रभावशाली बने हैं । यह चिन्तन सभी पाठकों को भी दिशा निर्देश दे यही कामना है । सस्नेह

SahityaShilpi का कहना है कि -

अच्छी उपदेशात्मक रचना है.

dr minoo का कहना है कि -

chalo need ki or...sangeetmay rachna...sunder prastutikaran...badhai sweekar karein...shrikant ji..

विश्व दीपक का कहना है कि -

पकड़ ले ..
निज उपवन की ठौर
छोड़ दे छलनामय रंग रौर
उड़ चले उस जीवन की ओर
जहाँ है राम राम सब ओर

बहुत हीं खूबसूरत प्रेरणादायक रचना है।
बधाई स्वीकारें।

-विश्व दीपक’तन्हा’

RAVI KANT का कहना है कि -

चलो नीड़ की ओर
बन्धु अब चलो नीड़ की ओर
जाने कितनी बार छला तू
छलना है चहुँ ओर ..

निश्चित ही नीड़ की ओर चलना श्रेयस्कर है पर बुद्धि इसे कब समझ पाती है!!

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