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Friday, June 06, 2008

सूरज


जब छोटा था,
तो देखता था,
उस सूखे हुए,
बिन पत्तों के पेड़ की शाखों से,
सूरज ...
एक लाल बॉल सा नज़र आता था,
आज बरसों बाद,
ख़ुद को पाता हूँ,
हाथ में लाल गेंद लिए बैठा -
एक बड़ी चट्टान के सहारे,
चट्टान मेरी तरह खामोश है,
और मैं जड़, उसकी तरह,
आज भी वो पेड़ मेरे सामने है,
और देखता हूँ उसकी नंगी शाखों से परे,
चमकती हुई लाल गेंद,
आसमां पर लटकी हुई,

मेरी पहुँच से मीलों दूर......

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21 कविताप्रेमियों का कहना है :

Harihar का कहना है कि -

आज भी वो पेड़ मेरे सामने है,
और देखता हूँ उसकी नंगी शाखों से परे,
चमकती हुई लाल गेंद,
आसमां पर लटकी हुई,

सच में संजीव जी, समय परिवर्तित होते
हुये भी बहुत कुछ अपरिवर्तित रह जाता है !

शोभा का कहना है कि -

सजीव जी
सुन्दर कविता। मन की अवस्था का सुन्दर चित्रण-
चट्टान मेरी तरह खामोश है,
और मैं जड़, उसकी तरह,
आज भी वो पेड़ मेरे सामने है,
और देखता हूँ उसकी नंगी शाखों से परे,
चमकती हुई लाल गेंद,
आसमां पर लटकी हुई,
बहुत सुन्दर।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

चट्टान मेरी तरह खामोश है,
और मैं जड़, उसकी तरह,
सुंदर लिखी है कविता सजीव जी आपने ..

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

सुन्दर अभिव्यक्ति सजीव जी...

आज भी वो पेड़ मेरे सामने है,
और देखता हूँ उसकी नंगी शाखों से परे,
चमकती हुई लाल गेंद,
आसमां पर लटकी हुई,

बधाई

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

बचपन सूरज को ही लाल गेंद समझता है।
वक्त बड़ा बेरहम है हकीकत बता देता है ।
--------और फिर चट्टान की तरह जड़ होकर--चट्टान की खामोशी सुनता कवि, दूर आकाश में टंगे सूरज को देखकर निराश होता है----
--हमें चाहिए की हकीकत जानकर-सूरज की उर्जा को अपने भीतर समेटकर --नव संघर्ष की तैयारी करें।
--सुन्दर रचना के लिए बधाई स्वीकारें।--देवेन्द्र पाण्डेय।

mehek का कहना है कि -

चट्टान मेरी तरह खामोश है,
और मैं जड़, उसकी तरह,
आज भी वो पेड़ मेरे सामने है,
और देखता हूँ उसकी नंगी शाखों से परे,
चमकती हुई लाल गेंद,
आसमां पर लटकी हुई,

मेरी पहुँच से मीलों दूर......
बहुत सुन्दर.बधाई

मुंहफट का कहना है कि -

क्या करिएगा, सबकी गेंद इसी तरह लटक रही है।

Nikhil का कहना है कि -

एक अच्छी कविता आधे सफर में ही क्यों रुक गई...खैर, आप भी सफर से लौटे हैं, क्या लाये मेरे लिए????

Shailesh Jamloki का कहना है कि -

सजीव जी,
आपके कविता बेशक बहुत अच्छी है.. प्रस्तुतीकरण और विषय दोनों बहुत अच्छे है.
बस आपकी कविता बहुत गहरे अर्थ लिए हुए है.. इसलिए थोडा देर से समझ मै आती है..और ऐसा भी संभव है की हर कोई अलग मतलब निकाले इस लिए कहीं न कही आप अपनी भाव पूरी तरह पाठक तक सही से पंहुचा नहीं पाए .. मुझे ऐसा लगा.. विचार भिन्न हो सकते हैं...
जहाँ तक मैंने समझा आप कुछ यू कहना चाह रहे है..
की बचपन मै आप सूरज को लाल गेंद समझ रहे है.. पर बड़े होकर पता चला वाकई लाल गेंद और सूरज मै क्या अंतर है.. या सच्चाई का पता चला है.. की सूरज अटल है.. प्रकृति के नियमो का पालन करते हुए.. लोगों का इष्ट बना हुआ है..

सादर
शैलेश

Shailesh Jamloki का कहना है कि -

या ये कहू.. की मैंने जब अर्थ निकाला तो सूरज पर केन्द्र मै रख कर .. कोई बचपन को केन्द्र मै रख कर मतलब निकलेगा.. कोई परिस्थितियों को जैसे चट्टान पेड़ आदि.. तो यहाँ पर भिन्नता हो जाती है..

Sajeev का कहना है कि -

शैलेश जी आप काफ़ी करीब हैं .... धन्येवाद की आपने टिपण्णी करने से पहले कविता को समझने की कोशिश की, ऐसा नही है की मैं भाव अधूरे छोड़ देता हूँ, बस मुझे लगता है की इतना इशारा काफी है समझने के लिए, यहाँ कई बार मैं ग़लत हो जाता हूँ.... पर क्या करूँ इसे मजबूरी मानिया, कविता एक दूसरे रूप में मृगतृष्णा को परिभाषित करती है....हम बस परछाईयों को पैकर मान लेते हैं और उन्हें समेटकर जड़ हो जाते हैं, और संतुष्टि रुपी सूरज हमेशा ही दूर रहता है... पहुँच से दूर....

विश्व दीपक का कहना है कि -

सजीव जी!
आपके द्वारा भावार्थ बताने के पश्चात हीं मैं कविता को पूर्णत: समझ पाया हूँ। अगर वह नहीं पढता तो शायद मैं भी निखिल जी की तरह हीं टिप्पणी करता। लेकिन अब भी शैलेश जी की तरह टिप्पणी करना चाहूँगा कि बात को इतना गूढ न रखा करें, नहीं तो कभी-कभार पाठक यह सोचता है कि "अच्छा हीं लिखा गया होगा, सजीव जी ने जो लिखा है..समझ न भी आए तो क्या ;) "

भाव अच्छे हैं, कविता और खुल सकती थी :)

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Shailesh Jamloki का कहना है कि -

सजीव जी,
धन्यबाद आपके इस भावार्थ के लिए.. और इसे पढ़ कर मुझे लगा. मैंने कविता का बहुत सारा मतलब छोड़ दिया था, और इस मतलब के साथ मुझे कविता दुबारा पढ़ कर बहुत आनंद आया..

सादर
शैलेश

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

सजीव जी---
कविता को मैन भी तो समझने का प्रयास किया था---और अपनी समझ से अच्छा ही समझा था---लेकिन जब आपने अर्थ समझाया तो और भी मजा आया--आधुनिक कविता और मार्डन आर्ट की शायद यही विशेषता है कि समझने वाले अपनी समझ से समझते हैं और बनाने वाला कुछ और ही समझाना चाहता है।---लेकिन सचमुच अर्थ समझने के बाद मजा आ गया---वाह क्या कविता है।----देवेन्द्र पाण्डेय।

Sajeev का कहना है कि -

शैलेश जी और देवेन्द्र जी आप दोनों का धन्येवाद, मैंने पहली बार अपनी कविता पर इस तरह से interaction किया है, बहुत मज़ा आया, vd भाई आगे से ख्याल रखूँगा, पर एक बात जो मुझे महसूस होती है वो ये है की कविता हमेशा ही ऐसी होनी चाहिए जो पढ़ने वाले को बाध्य करे की वो दुबारा पढे, मुझे खुद ऐसी कवितायेँ अधिक पसंद हैं जिसमे कम शब्द हो, चाँद बिम्ब हो मगर सार्थक और जो कम से कम मुझे दुबारा पढ़ने पर बाध्य करे, जब पाठक भाव का अर्थ खुद बूझ कर समझता है तो वो विचार गहरे बस जाते हैं उसके मन में, मैं अपनी इस कविता की बात नहीं कर रहा हूँ, पर ऐसी बहुत सी नायाब कवितायेँ है जो बड़े बडे कवियों ने लिखी है, जो एक बार में कभी समझ नहीं आती पर गहरे उतरने पर मन में सदा के लिए बस जाती है... युग्म में उदाहरण लूँ तो गिरिराज की कविता " कील" बेहद यादगार कविता है मेरे लिए.... ये बस व्यक्तिगत राय है......

सीमा सचदेव का कहना है कि -

चट्टान मेरी तरह खामोश है,
और मैं जड़, उसकी तरह,
बहुत ही सुंदर ...बधाई

Pooja Anil का कहना है कि -

धन्यवाद सजीव जी ,आपने समझाया तो कविता का अर्थ स्पष्ट हुआ . कविता छोटी हो, सिमटी हुई हो सिर्फ़ चंद बिम्बों में, मगर व्यापक अर्थ रखती हो तो कविता सफल भी कही जाती है . मैं आपकी कविता पिछले तीन दिनों से रोज़ पढ़ रही हूँ, किंतु टिप्पणी नहीं लिख पाई , क्योंकि मुझे समझ नहीं आ रहा था कि शाब्दिक अर्थ जो सामने हैं उनकी प्रशंसा करूं या आप जो कहना चाहते हैं उसके लिए कुछ लिखूं , आज जब सभी टिप्पणियों को पढ़ा तो आपके द्वारा की गई विवेचना से भावार्थ समझ में आया . अब कह सकती हूँ कि सचमुच बेहद सारपूर्ण कविता है. बधाई

^^पूजा अनिल

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