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Wednesday, July 23, 2008

दर्द


नींद की जो बाटजोही करवटें करती नहीं,
जागते दरख्तों पर अब धूप उतरती नहीं।

मालूम है मामूल पर ना-वास्ता के वास्ते,
जिंदगी इन फेफड़ों में साँसे भी भरती नहीं।

दर्द,सौ शिकवे भरे हैं बेजुबान लफ़्जों में,
मरते हैं गज़लगो पर गज़लें कभू मरती नहीं।

रख दिया है आसमां के चाँद को उबालकर,
फिर भी क्यूँ ये चाँदनी खुलकर बिखरती नहीं?

इन बुतों की बात में पोशीदा मुगलते कई,
रूख्सार से नज़रें हटे, नियत पर मुकरती नहीं।

’तन्हा’ कमख्याली ने लूटा हाल-औ-माज़ी को,
कोटरों की कोख से क्यों आँखे उभरती नहीं?

शब्दार्थ:
मामूल = नियम , रूटीन
कभू= कभी
बुत= मूर्त्ति, प्रियतमा, भगवान
हाल-औ-माज़ी= वर्त्तमान और भूत

-विश्व दीपक ’तन्हा’

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17 कविताप्रेमियों का कहना है :

रंजू भाटिया का कहना है कि -

दर्द,सौ शिकवे भरे हैं बेजुबान लफ़्जों में,
मरते हैं गज़लगो पर गज़लें कभू मरती नहीं।







बहुत सुंदर बहुत दिनों बाद आपका लिखा पढ़ा अच्छा लगा

सीमा सचदेव का कहना है कि -

दर्द,सौ शिकवे भरे हैं बेजुबान लफ़्जों में,
मरते हैं गज़लगो पर गज़लें कभू मरती नहीं।
तन्हा कवि जी मै इस के लिए केवल इतना ही कहूँगी की ग़ज़लगो भी कभी नही मरते |

Smart Indian का कहना है कि -

अच्छी ग़ज़ल है. शब्दार्थ देकर और भी अच्छा किया है. सिर्फ़ एकाध जगह नुक़तों की कमी खाली

करण समस्तीपुरी का कहना है कि -

तन्हा जी आप तो खालिस शायर हो गए ! मुबारक हो !!!

Anonymous का कहना है कि -

इन बुतों की बात में पोशीदा मुगलते कई,
रूख्सार से नज़रें हटे, नियत पर मुकरती नहीं।

bahut sunder
saader
rachana

BRAHMA NATH TRIPATHI का कहना है कि -

दर्द,सौ शिकवे भरे हैं बेजुबान लफ़्जों में,
मरते हैं गज़लगो पर गज़लें कभू मरती नहीं।

रख दिया है आसमां के चाँद को उबालकर,
फिर भी क्यूँ ये चाँदनी खुलकर बिखरती नहीं?

बहुत अच्छा तन्हा जी पुरी ग़ज़ल के साथ साथ मुझे ये दो शेर बहुत ज्यादा पसंद आए
लेकिन पहले शेर में कभू का क्या अर्थ है मुझे लगता है की शायद यहाँ कभी होना चाहिए

Anonymous का कहना है कि -

बहुत खुबसूरत गजल
आलोक सिंह "साहिल"

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

रख दिया है आसमां के चाँद को उबालकर,
फिर भी क्यूँ ये चाँदनी खुलकर बिखरती नहीं?

-- यही समझा ठीक से | इसलिए इसे ही सबसे अच्छा कह सकता हूँ |
इस समय थका हूँ इसलिए ज्यादा सोच नही पा रहा हूँ |

बधाई |

-- अवनीश तिवारी

Sajeev का कहना है कि -

दर्द,सौ शिकवे भरे हैं बेजुबान लफ़्जों में,
मरते हैं गज़लगो पर गज़लें कभी मरती नहीं।

क्या बात कही है जनाब....आफरीन

Alok Shankar का कहना है कि -

साँसे - साँस
typos :
नियत
कभू


मालूम है मामूल पर ना-वास्ता के वास्ते,
जिंदगी इन फेफड़ों में साँसे भी भरती नहीं
liked this most.
Tanha bhai, aap kabhi bhi out of form nahi hote.

Pritishi का कहना है कि -

इन बुतों की बात में पोशीदा मुगलते कई,
रूख्सार से नज़रें हटे, नियत पर मुकरती नहीं।
Nice.

डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी का कहना है कि -

रख दिया है आसमां के चाँद को उबालकर,
फिर भी क्यूँ ये चाँदनी खुलकर बिखरती नहीं?
उत्तम! बहुत अच्छा.

डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी का कहना है कि -

रख दिया है आसमां के चाँद को उबालकर,
फिर भी क्यूँ ये चाँदनी खुलकर बिखरती नहीं?
उत्तम! बहुत अच्छा.

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

बहुत ही उम्दा शे'र-
इन बुतों की बात में पोशीदा मुगलते कई,
रूख्सार से नज़रें हटे, नियत पर मुकरती नहीं।

Mohinder56 का कहना है कि -

Tanha ji

Hyderabaadi tone ki Gazal pasand aayee hame...

Shailesh Jamloki का कहना है कि -

तनहा जी ,

मुझे अच्छा लगा आपने मेरी बात पर गौर किया.. और कुछ शब्दार्थ दिए

१) मुझे अभी भी कुछ शब्दों के अर्थ समझ नहीं आये जैसे दरख्तों, पोशीदा
२) इस शेर का मतलब समझ नहीं आया
"मालूम है मामूल पर ना-वास्ता के वास्ते,
जिंदगी इन फेफड़ों में साँसे भी भरती नहीं"

३) आपके ग़ज़ल का मतला तो बहुत सही मिला था, बहर के हिसाब से ..पर किसी शेर मै थोडा सा कम लगा .. आप भी महसूस कीजिये

१) "नींद की जो बाटजोही करवटें करती नहीं "
२) "दर्द,सौ शिकवे भरे हैं बेजुबान लफ़्जों में,"

हमारे गुरूजी कहते थी.. ग़ज़ल तो ध्वनि का खेल है.. और उसकी सुन्दरता बढ़ जाती है.. अतः आप इसका भी ध्यान रखें

सादर
शैलेश

विश्व दीपक का कहना है कि -

शैलेश जमलोकी जी,
क्षमा चाहता हूँ कि मैं सारे शब्दों का अर्थ नहीं दे पाया। मुझे लगा कि दरख्त, पोशीदा जैसे शब्द अब सामान्य उपयोग में आते हैं,इसलिए अर्थ देने की आवश्यकता नहीं है।

दरख्त= पेड़
पोशीदा= छिपा हुआ
गज़लगो = गज़ल लिखने वाला
मुगलता= धोखा
रूख्सार = चेहरा
कमख्याली = दूरदर्शिता की कमी

मालूम है मामूल पर ना-वास्ता के वास्ते,
जिंदगी इन फेफड़ों में साँसे भी भरती नहीं।

अर्थ:
जिंदगी जीने के लिए साँसों की आवश्यकता होती है। यह बात जिंदगी भी जानती है। उसे फेफड़ों में साँस भरने का रूटीन मालूम है। फिर भी जिंदगी फेफड़ों में अब साँस नहीं भरती, क्योंकि अब वो मुझसे कोई वास्ता नहीं रखना चाहती।

शैलेश जी,
मैं ध्वनि का खेल समझने की हीं कोशिश कर रहा हूँ। उम्मीद करता हूँ कि अगली बार बहर, काफिया और रदीफ सब सही रहेगा। वैसे "नींद की जो बाटजोही करवटें करती नहीं" और "दर्द,सौ शिकवे भरे हैं बेजुबान लफ़्जों में" - इन दो पंक्तियों में मुझे ध्वनि का अंतर दीख नहीं रहा। आप कह रहे हैं तो शायद हो सकता है। आगे से ध्यान दूँगा!!!

-विश्व दीपक ’तन्हा’

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