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Wednesday, September 10, 2008

ये नए ज़माने के शायिर, ये औरत भी है, ये माँ भी है


पिछली महीने चौथे स्थान की कविता के रूप में हमने रूपम चोपड़ा (RC) की एक ग़ज़ल प्रकाशित की थी। इस माह भी इनकी एक कविता सातवें स्थान पर है। रूपम चोपड़ा हिन्द-युग्म में स्थाई तौर से लिखना चाहती हैं। जल्द ही हम इन्हें स्थाई सदस्यता देंगे और किसी खास वार को ये अपनी कविताओं के साथ उपस्थिति हुआ करेंगी।

पुरस्कृत कविता- ऑफ-बीट शायरी

यूँ लगे के अब मुट्ठी में ज़मीं भी है, आसमां भी है
सोचा नहीं था किस्मत में लिक्खा ऐसा लम्हा भी है

चंद लम्हों में भूल गई थी दर्द वो लम्बी रातों के
जब पाया आगोश में नौजाइदा* सा इक महमाँ भी है

माँ कहती थी माँ क्या होवे कुछ तुझे अंदाज़ भी है
माँ बनीं तो समझी कितना मुश्किल भी है आसां भी है

एक ही पल में दे आंसू है एक ही पल मुस्कां भी है
एक पल में नीम-शहद, वो एक अजब इम्तेहां भी है

तुझको पाने इस दुनिया के इम्तेहा-ए-दर्द से गुजर गई
तेरी एक आह पर ये दिल आज गजब परेशां भी है

तुझ से पहले भूल गई थी मेरा इक मकां भी है
मेरे दिन कटते थे दफ्तर में, भूक लगे तो दूकां* भी है

तू आई तो देखो कैसे बदले अब इन्सां भी है
तेरी खातिर इस घर में, बनते अब पकवां भी है

कहते-लिखते लोगों को अल्फाज़ भी कम पड़ जाते हैं
जाने कैसे हर बात तेरी, बेज़ुबां भी है, अयां भी है

तुझ से पहले शामिल होती थी मैं सिजदा-गुजारों* में
तेरी सूरत देख लगा के एक खुदा यहाँ भी है

एक इबारत की थी मैंने इक मासूम मुस्कां के लिए
वाह करम! ख़ुद आया है, खुदा कितना महेरबां भी है

मुझे पता है पढने वाले खुश भी है हैरां भी है
ये नए ज़माने के शायिर, ये औरत भी है, ये माँ भी है
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दूकां- dookaan
नौजाइदा- नवजात , लब-बस्ता - unspoken, नुमायां - प्रकट,
सिजदा-गुजारों में - माथा टेकने वालों में


प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५, ३, ४॰५, ६॰३५, ७॰२५
औसत अंक- ५॰२२
स्थान- तेरहवाँ


द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७, ५, ५॰२२ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰७४
स्थान- सातवाँ


पुरस्कार- मसि-कागद की ओर से कुछ पुस्तकें। संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी अपना काव्य-संग्रह 'समर्पण' भेंट करेंगे।

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8 कविताप्रेमियों का कहना है :

संगीता पुरी का कहना है कि -

बहुत अच्छा।

SURINDER RATTI का कहना है कि -

रूपम जी - बधाई
ये लाइन बहुत पसंद आई
यूँ लगे के अब मुट्ठी में ज़मीं भी है, आसमां भी है
सोचा नहीं था किस्मत में लिक्खा ऐसा लम्हा भी है
एक ही पल में दे आंसू है एक ही पल मुस्कां भी है
एक पल में नीम-शहद, वो एक अजब इम्तेहां भी है
तुझ से पहले शामिल होती थी मैं सिजदा-गुजारों* में
तेरी सूरत देख लगा के एक खुदा यहाँ भी है
एक इबारत की थी मैंने इक मासूम मुस्कां के लिए
वाह करम! ख़ुद आया है, खुदा कितना महेरबां भी है
बहुत बढिया वाह वाह - सुरिन्दर रत्ती मुंबई

Straight Bend का कहना है कि -

Bahut bahut shukriya!

Harihar का कहना है कि -

कहते-लिखते लोगों को अल्फाज़ भी कम पड़ जाते हैं
जाने कैसे हर बात तेरी, बेज़ुबां भी है, अयां भी है

वाह रूपम जी ! बहुत बढ़िया!

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

बहुत अच्छे रूपम जी...

यूँ लगे के अब मुट्ठी में ज़मीं भी है, आसमां भी है
सोचा नहीं था किस्मत में लिक्खा ऐसा लम्हा भी है

बधाई...

Anonymous का कहना है कि -

क्या बात है हर लाइन सुंदर और विशेष है
सादर
रचना

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

आपकी ग़ज़ल मुझे बेहद पसंद आई। आज लेखन और गृहस्थ की जिम्मेदारियों के निर्वहन के बीच अच्छा सामंजस्य बिठाए हुए हैं। हिन्द-युग्म परिवार में आपका स्वागत है।

अभिन्न का कहना है कि -

तुझ से पहले शामिल होती थी मैं सिजदा-गुजारों* में
तेरी सूरत देख लगा के एक खुदा यहाँ भी है

एक इबारत की थी मैंने इक मासूम मुस्कां के लिए
वाह करम! ख़ुद आया है, खुदा कितना महेरबां भी है
रूपम जी आप की ये रचना पढ़ कर लगा की आप तो अव्वल दर्जे पर हो .प्रतियोगिता के माप दंड से ऊपर की शायरी देखने को मिली ...उपरोक्त शेर बहुत ही पसंद आए है ..सुंदर लेखन और उच्च विचारों से भरी पूरी ग़ज़ल पढ़कर अच्छा लगा धन्यवाद

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