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Thursday, October 16, 2008

कामचोर


हृदय
कुछ कमजोर
हो गया है ।
पूरी क्षमता से
काम नही करता,
शायद कामचोर हो गया है ।
किडनी भी
ठीक नही रहती,
डॉक्‍टर की निग़ाह पर है ।
लगता है वह भी
ह्रदय की राह पर है
औरत मर्द एक से दिखते,
बच्‍चे बन्‍दर गढ लेती है ।
थक सी गई है आँखे,
कुछ का कुछ पढ लेती है ।
इतने कामचोरों संग रह कर,
आत्‍मावलोकन कर लेता हूँ ।
पछतावे से हर पल बोझल,
अपनी नज़रे भर लेता हूँ ।
मुझे याद आते वह पल,
जब हम केंटीन में सोते थे ।
घंटो खड़े खिड़की पर
लोग किस्‍मत को रोते थे ।
काम करता मेरे हिस्‍से का,
लम्‍हा-लम्‍हा छीजता था ।
जाने कौन स्‍वेद कणों से
मेरी तनख़ा सींचता था ।
.
विनय के जोशी

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14 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

बहुत ही सुंदर लिखा है खास कर ये लाइन बहुत अच्छी लगी
मुझे याद आते वह पल,
जब हम केंटीन में सोते थे ।
घंटो खड़े खिड़की पर
लोग किस्‍मत को रोते थे ।
काम करता मेरे हिस्‍से का,
लम्‍हा-लम्‍हा छीजता था ।
जाने कौन स्‍वेद कणों से
मेरी तनख़ा सींचता था ।
सादर
रचना

परमजीत सिहँ बाली का कहना है कि -

बहुत बढिया लिखा है।बधाई।

मुझे याद आते वह पल,
जब हम केंटीन में सोते थे ।
घंटो खड़े खिड़की पर
लोग किस्‍मत को रोते थे ।
काम करता मेरे हिस्‍से का,
लम्‍हा-लम्‍हा छीजता था ।
जाने कौन स्‍वेद कणों से
मेरी तनख़ा सींचता था ।

समीर यादव का कहना है कि -

हिन्दी युग्म हिन्दी की सेवा में पूर्णतः लीन है, इसके लिए इस टीम के सभी सदस्यों को मेरा अभिवादन !! साधुवाद...!! अलग क्षेत्र के नए नए लोगों को एक मंच देकर आप लोगों ने हिन्दी को अंतरजाल में एक उचित प्रतिष्ठा दिलाने की जो ठानी है उसमें हम भी सहभागी है. रचनाओं का स्तर भी अनुपम है. अनवरत रहें..... शुभकामनायें.

Anonymous का कहना है कि -

सुंदर यथार्थवादी चित्रण पर बधाई जोशी जी ,दिल ढूँढत है फ़िर वही फुर्सत के रात दिन ,श्यामसखा श्याम

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

विनय जी,

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है..

किडनी भी
ठीक नही रहती,
डॉक्‍टर की निग़ाह पर है ।
लगता है वह भी
ह्रदय की राह पर है
औरत मर्द एक से दिखते,
बच्‍चे बन्‍दर गढ लेती है ।
थक सी गई है आँखे,
कुछ का कुछ पढ लेती है ।


काम करता मेरे हिस्‍से का,
लम्‍हा-लम्‍हा छीजता था ।
जाने कौन स्‍वेद कणों से
मेरी तनख़ा सींचता था ।
- अति सुन्दर
बधाई

शोभा का कहना है कि -

मुझे याद आते वह पल,
जब हम केंटीन में सोते थे ।
घंटो खड़े खिड़की पर
लोग किस्‍मत को रोते थे ।
काम करता मेरे हिस्‍से का,
लम्‍हा-लम्‍हा छीजता था ।
जाने कौन स्‍वेद कणों से
मेरी तनख़ा सींचता था ।
.
विनय जी,
बहुत अच लिखा है.

Vivek Gupta का कहना है कि -

बहुत ही सुंदर लिखा है

makrand का कहना है कि -

bahut sunder rachana
regards

दीपाली का कहना है कि -

बहुत, बहुत, बहुत सुंदर रचना.
शब्दों में बंध कर इसे छोटा नही करुँगी.

Nikhil का कहना है कि -

अच्छी रचना....थोड़ा और बिस्तार देते तो रचना और खिलती....

Anonymous का कहना है कि -

laajwab abhivyakti vinay ji.maja aa gaya.
alok singh "sahil"

Sajeev का कहना है कि -

बहुत खूब विनय जी

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

इसमें साफ झलकता है कि कवि में तुक का मोह है। कभी-कभार इस चक्कर में गंभीर कथ्य भी हल्के हो जाते हैं। इस बातों का ख्याल रखें विनय जी।

Unknown का कहना है कि -

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