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Sunday, November 30, 2008

लज्ज़ते सहरा-नवर्दी दूरिये - मंजिल में है


'भगत सिंह विशेष' की नवीं कड़ी




पिछली कड़ियाँ
  1. ऐ शहीदे मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार

  2. आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है

  3. क्या तमन्ना-ऐ- शहादत भी किसी के दिल में है (1)

  4. क्या तमन्ना-ऐ- शहादत भी किसी के दिल में है (2)

  5. देखना है ज़ोर कितना बाज़ू ए कातिल में है...

  6. सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है...

  7. हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है...

  8. रहबरे राहे मुहब्बत रह न जाना राह में...



भगत सिंह की वैचारिकता का असर उनके साथियों पर न हो, यह असंभव था. भगत सिंह द्वारा स्थापित 'नौजवान भारत सभा', जिस की चर्चा हम पहले के अध्यायों में कर चुके हैं, के प्रचार-मंत्री थे भगवतीचरण वोहरा. उनकी पत्नी, जो कि सभी क्रांतिकारियों को एक बहन की तरह प्यार देती थी, सब पर अपनी जान निछावर करती थी व असेम्बली में बम फेंकने जैसा खतरनाक काम तक स्वयं करने की इच्छा रखती थी, को सब लोग प्रेम-वश दुर्गा भाभी कहते थे. 'नौजवान भारत सभा' के घोषणा पत्र को मूलतः भगवतीचरण वोहरा ने ही लिखा था, हालांकि उस में भगत सिंह की साथी दृष्टि भी शामिल थी. भगवतीचरण वोहरा इस घोषणा पत्र में लिखते हैं:

'जबकि हम भारतवासी, हम कर क्या रहे हैं? पीपल की एक डाल टूटते ही हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं चोटिल हो उठती हैं. बुतों को तोड़ने वाले मुसलामानों के ताजिये नामक कागज़ के बुत का कोना फटते ही, अल्लाह का प्रकोप जाग उठता है और फ़िर वह नापाक हिन्दुओं के खून से कम किसी वस्तु से संतुष्ट नहीं होता. मनुष्य को पशुओं से अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए, लेकिन यहाँ भारत में वे लोग, पवित्र पशु के नाम पर एक दूसरे का सर फोड़ते हैं.' (सन्दर्भ पृष्ठ 262 'भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़' - संपादक जगमोहन, सिंह चमन लाल - अध्याय - 'नौजवान भारत सभा और राष्ट्रीय नेता').

नौजवानों में अपनी अटूट आस्था जताते हुए तथा नौजवानी व बहादुरी को एक दूसरे के पर्याय मानते हुए भगवतीचरण लिखते हैं - 'क्या यह जापान के नौजवान नहीं थे जिन्होंने पोर्ट आर्थर तक पहुँचने के लिए सूखा रास्ता बनाने के उद्देश्य से अपने आप को सैंकड़ों की तादाद में खाइयों में झोंक दिया था? और जापान आज विश्व के सबसे आगे बढ़े हुए देशों में से एक है. क्या यह पोलैंड के नौजवान नहीं थे जिन्होंने पिछली पूरी शताब्दी भर बार-बार संघर्ष किए, पराजित हुए और फ़िर बहादुरी के साथ लड़े? और आज एक आज़ाद पोलैंड हमारे सामने है. इटली को आस्ट्रिया के जुए से किसने आज़ाद किया था? तरुण इटली ने' (वही लेख वही पृष्ट).

आज़ादी की चाहना रखने वाले, परन्तु व्यावहारिक रूप में कुछ भी न कर पाने वाले लोगों को आह्वान देता है 'नौजवान भारत सभा' का घोषणा पत्र. उसी लेख में एक जगह भगवतीचरण लिखते हैं:'क्या हमें यह महसूस कराने के लिए कि हम गुलाम हैं, और हमें आज़ाद होना चाहिए, किसी दैवी ज्ञान या आकाशवाणी की आवश्यकता है?... क्या हम इंतज़ार में बैठे रहेंगे कि कोई दैवी सहायता आ जाए या फ़िर कोई जादू हो जाए, कि हम आज़ाद हो जाएँ?' (पृष्ठ 261).

पर दुर्गा भाभी के सुहाग, देश के ये सपूत भगवतीचरण वोहरा, जिस दर्दनाक तरीके से अपने सभी क्रांतिकारी साथियों से सहसा बिछड़ गए, उस का वर्णन किए बिना यह क्रान्ति-कथा अधूरी रह जाएगी. भगवतीचरण बहुत असमय, बिना किसी की साज़िश के, एक अप्रत्याशित दुर्घटना में चल बसे, व उन्हीं साथियों के हृदयों पर गहरी चोट कर गए, जिन के साथ वे दिन-रात ऐसे बने रहते, जैसे बिस्मिल का यह शेर है:

रहबरे राहे-मुहब्बत रह न जाना राह में,
लज़्ज़ते सहरा-नवर्दी दूरिये- मंज़िल में है.
(लज्ज़त = आनंद, स्वाद, सहरा-नवर्दी = रेगिस्तान का सफर).

इधर भगत सिंह व साथियों पर मुक़दमे चल रहे थे, उधर 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' की केंद्रीय समिति सभाएं बुला बुला कर अपनी गतिविधियों को और अधिक तेज़ करने पर गहरे विचार-विमर्श करती रहती. भगवतीचरण वोहरा व यशपाल ने दि. 23 दिसम्बर 1929 को एक रेलगाड़ी जिसमें वायसराय यात्रा कर रहे थे, को गिराने की पूर्व-निर्धारित योजना को सरंजाम देने की कोशिश की. दिल्ली के पुराने किले के निकट एक बैटरी तथा स्विच छुपा कर रखे गए. गाड़ी दिल्ली रेलवे स्टेशन के निकट खड़ी थी व उसमें एक स्लीपर के नीचे एक लचकीली तार लगाई गई, जो कि ज़मीन में तीन इंच अन्दर तक जाती थी. पुराने किले की बैटरी इस प्रकार इस ज़मीन में डूबती तार से 'कनेक्ट' थी. ऐन समय पर यशपाल ने स्विच तो दबा दिया, बोगी नं . 8 और 9 को क्षति पहुँची, पर वायसराय बच गए. 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' की केंद्रीय समिति ने भगत सिंह को धोखे से जेल से भगा देने की योजना भी बनाई. योजना के प्रभारी चंद्रशेखर आज़ाद थे. इस के अनुसार जब भगत सिंह को सेंट्रल जेल से कोर्ट ले जाया जाएगा, तब वे पुलिस-वालों से घिरे हुए जेल के गेट से पुलिस की वैन की तरफ़ ले जाए जा रहे होंगे. उस समय यदि हम आसपास एक बम फेंक देंगे तो भगदड़ मच जाएगी और उस अफरा-तफरी का फ़ायदा उठा कर हम भगत सिंह को ले उड़ेंगे. पर इस योजना के कार्यान्वयन के लिए पूर्वाभ्यास ज़रूरी समझा गया. पूर्वाभ्यास के प्रभारी बने भगवतीचरण वोहरा. रावी नदी के किनारे कई नौजवान पहुँच गए. 28 मई 1930 को हो रहे इस पूर्वाभ्यास में किसी को पुलिस की भूमिका दी गई, किसी को भगत सिंह बनाया गया. पर दुर्घटना यहीं घटी. जब कुछ फासले से बम फेंका गया, तो बम गलती से वहीं जा गिरा, जहाँ भगवतीचरण खड़े थे. वे इस प्रकार बम के विस्फोट से शहीद हो गए और फिलहाल अपने साथियों को आंसुओं में डुबो गए.

पर जिस राह पर ये नौजवान थे, उसमें आंसू बहा कर कहीं रुक जाने की कोई गुंजाइश नहीं थी. भगत सिंह को आज़ाद कराने की एक और योजना भी बनाई गई, कि जिस समय उन्हें पुलिस जेल के फाटक से वैन की तरफ़ ले जाएगी, उस समय हम पुलिस पर हमला बोल देंगे. पर यह योजना भी सफल न हो सकी थी. पुलिस ने क्या किया कि वैन का मुंह एकदम फाटक से सटा हुआ रखा और भगत सिंह फाटक से सीधे वैन के भीतर प्रविष्ट कर गए...

...इस लेखमाला में पहले बताया गया है कि दिल्ली में 'असेम्बली बम काण्ड' पर मुकदमा समाप्त होने के बाद भगत सिंह को लाहौर की मिआंवाली जेल में भेजा गया, जहाँ उन्होंने 15 जून 1929 से ही अपने साथियों समेत भूख हड़ताल शुरू कर दी थी. दरअसल ब्रिटिश का भारतवासियों के प्रति दुर्व्यवहार जग-प्रसिद्ध था. यदि यूरोप में कोई व्यक्ति कोई भी अपराध करे, चाहे चोरी या कत्ल, उसे जेल में सभी ज़रूरी सुविधाएं उपलब्ध होती थी. पर भारत के राजनैतिक कैदियों को ब्रिटिश ऐसी कोई भी सुविधा न दे कर उन्हें यहाँ के आम अपराधियों की तरह रखती थी. यहाँ के आम अपराधी को न तो अच्छा खाना मिलता, न अन्य सुविधाएं. राजनैतिक कैदी को भी लगभग उसी के बराबर रखा जाता. ज़रा एक नज़र बाद के दिनों में, यानी 30 जुलाई 1929 को सुखदेव द्वारा लाहौर सेंट्रल जेल के superintendent को लिखे गए पत्र पर डालें. सुखदेव तर्क देते हैं कि:
' असेम्बली बम काण्ड के बाद वायसराय लार्ड इर्विन ने अपने भाषण में कहा था कि बम किसी भी व्यक्ति की तरफ़ निर्देशित नहीं थे, वरन संस्था (ब्रिटिश) की तरफ़ निर्देशित थे. इसी प्रकार मिडलटन ने अपनी जजमेंट में कहा था कि ये लोग (भगत सिंह व दत्त) 'इन्कलाब ज़िन्दाबाद' और 'मज़दूर एकता ज़िन्दाबाद' जैसे नारे लगाते हुए अदालत में घुसते. यह दिखाता है कि वे किस प्रकार के राजनैतिक विचारों को चाहते हैं...लार्ड इर्विन व मिडलटन की टिप्पणियो से पता चलता है कि हम राजनैतिक हैं. इसलिए मैं यह मांग रखता हूँ कि भगत सिंह व दत्त को राजनैतिक माना जाए (The Trial of Bhagat Singh: Politics of Justice) by AG Noorani p 50.

ब्रिटिश क़ानून के अनुसार कोई भी कैदी यदि अदालत में पूर्णतः अनुपस्थित रहे, तो उस पर मुकदमा आगे नहीं बढ़ाया जा सकता. पर भगत सिंह द्वारा शुरू की गई भूख हड़ताल का उद्देश्य मुक़दमे को ठेस पहुँचाना नहीं था, क्यों कि भगत सिंह तो चाहते थे कि मुकदमा चले, और देश के अखबारों में छपी ख़बरों से देश की युवा पीढ़ी को प्रेरणा मिले. इसलिए उनकी भूख हड़ताल का उद्देश्य केवल यही था कि जेल में कैद क्रांतिकारियों को राजनैतिक कैदियों का उचित दर्जा मिले व जनता के सामने ब्रिटिश की कलई खुले. उन्होंने 17 जून 1929 को मिआंवाली जेल से पंजाब जेलों के 'इंसपेक्टर जनरल' (IG) को एक पत्र में लिखा:

मुझे असेम्बली बम काण्ड में उम्र कैद मिली है, इसलिए मैं राजनैतिक कैदी हूँ. दिल्ली की जेल में हमें भोजन पर विशेष डाइट मिलती थी. पर यहाँ पहुँचते ही मुझे एक सामान्य अपराधी की तरह रखा जा रहा है. इसलिए मैं 15 जून 1929 से भूख हड़ताल पर हूँ. इन तीन दिनों में ही मेरा वज़न 6 पाउंड घट गया है. इस लिए मेरी मांगें हैं :

1. विशेष डाइट (दूध, घी, चावल, दही आदि समेत)

2. कोई जबरन मज़दूर नहीं
3. टॉयलेट (साबुन तेल व हजामत के सामान समेत)
4. सभी प्रकार का साहित्य यथा इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, विज्ञान, काव्य, नाटक, उपन्यास कहानी, समाचार पत्र आदि) (वही पुस्तक p 49).

क्या भगत सिंह को खाने की कोई भूख थी? या वे जेल में ऐशो-आराम से रहना चाहते थे? यह सब कुछ तो त्याग कर वे आज़ादी की राह पर चले आए थे, जहाँ उनका कहना था कि शहादत ही उन की वधु होगी और उन्हें अन्तिम विदाई देने वाले लोग ही बाराती. पर यहाँ प्रश्न उसूलों का था. भूख हड़ताल का अध्याय भगत सिंह व उसके साथियों की जेल यात्रा का एक बेहद महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसने पूरे देश की चेतना को हिला दिया. कांग्रेस के सभी नेता, विशेषकर जवाहरलाल नेहरू.. सब के सब भगत सिंह के साथ आ खड़े हुए. पर उस लंबे अध्याय की चर्चा अगली बार..

क्रमशः॰॰॰॰॰॰

लेखक- प्रेमचंद सहजवाला

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कविताप्रेमी का कहना है :

manu का कहना है कि -

अभी तक इतनी बातों का पता नहीं था. जितना भी जाना था फिल्मों से या साधारणतय सी जीवनी से .. ..खासकर शहीद-ऐ-आज़म के साथियों की जानकारी पाकर ज्ञान वृद्दि हुयी है ....शेर-ऐ-बिस्मिल से सजा लेख ......बहुत अच्छा लगा.
शुक्रिया |

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